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________________ भविसयत्तकहा का भावबोध - (डॉ०) प्रो. छोटेलाल शर्मा भाव या भावों की व्यवस्था, अवस्था, समन्वय या भावक्षेत्र की संज्ञा रस है । इसलिए एक प्रकार से यह प्राध्यात्मिक बोध है । वैष्णवभक्तों ने "काव्यांगसंकर", "रसगुणालंकार", "सालंकार संकर..."प्रादि विशेषणों का प्रयोग किया है। "भोज" रस को एक उक्ति कहते हैं जो वाणी को अलंकृत करती है। भाव, रस, भावाभास, रसाभास प्रादि एक ही तत्त्व की विभिन्न अवस्थाएं हैं-भाव केन्द्रीय, रस चरम और भावाभास तथा रसाभास नीचे की, रस की पराकोटि अद्वैत की द्योतक है, मध्यावस्था द्वैतकी-यही रस की प्रास्वादता और प्रास्वाद्यता है-"रसनाद् रसः" और "प्रास्वाद्यत्वात् रसः" । इसका अधिष्ठान अहंकार है जो मन की शुद्ध प्रक्रिया की देन है । प्रानंत्य के साथ जुड़ना इसका स्वभाव है और श्रृंगार में चरमता को प्राप्त होता है। इसीलिए श्रृंगार को मूलरस कहा गया है-यही दर्शन का अहं है जो विविध भावों में विकीर्ण होता है। सभी का समन्वित रूप 'प्रेमन्' है । सभी भाव चरमता को प्राप्त कर सकते हैं । इनकी 'स्थायी' और 'संचारी' संज्ञा संदर्भ-सापेक्ष है । इसके लिए औचित्य प्रसार और गहराई की अपेक्षा है । इस प्रकार अनेकत्व विकासमूलक है और एकत्व सात्विक । आस्वाद भी प्रात्मरतिमूलक ही हैअहंकार के बाह्य पदार्थों से सम्बद्ध होते ही सभी दुःखद वस्तुएं सुखद हो जाती हैं ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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