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जैनविद्या
. रस-वर्णन की दृष्टि से भी "भविसयत्तकहा" श्रेण्य है। इसके तीनों पूर्वोक्त प्रकरणों में प्रथम में शृंगार रस, द्वितीय में वीर रस और तृतीय में शांत रस की योजना की गई है। शृंगार से शांत की ओर प्रस्थान ही जैन काव्यों की सर्वविदित चारित्रिक विशेषता है। "भविसयत्तकहा" की नारी पात्र कमलश्री के अनुपम-अंग-सौंदर्य को देखकर कामदेव भी अपने को भूल जाता है-"सोहग्गे मयरउ खोहइ।" वीर रस के प्रसंग में महाकवि ने गजपुर और पोतनपुर के राजाओं के बीच हुए युद्ध का सजीव वर्णन करते हुए कहा हैं
तो हरिखरखुरग्गसंघट्टि छाइउ रण अतोरणे। एं भडमच्छरग्गिसंधुक्कणधूमतमंधयारणे ॥ 14. 14. 1
अर्थात् घोड़ों के तीखे खुरागों के संघर्षण से उद्भूत रज से तोरणरहित युद्धभूमि पाच्छन्न हो गई । वह रज ऐसी प्रतीत होती थी मानो योद्धाओं की क्रोधाग्नि से उत्पन्न धुआं का अन्धकार हो ।
पुनः शांत रस के वर्णन के क्रम में संसार की असारता का प्रदर्शन करते हुए महाकवि ने लिखा है
अहो नारद संसारि प्रसारइ, तक्खणि विठ्ठपणछवियारइ। पाइवि मणुमजम्मु जणवल्लहु,
बहुभवकोडिसहासि दुल्लहु ॥ 18. 13. 1 .. "भविसयत्तकहा" प्रकृति-वर्णन का तो महाकोष है। इस महाकाव्य में पालम्बन-' रूप में अंकित अनेक विमुग्धकारी प्रकृति-चित्र हैं । एक मनोमोहक प्रकृति-चित्र द्रष्टव्य है
- दिसामंडलं जत्थ पाउं अलक्खं,
पहाय पि जारिणज्जए जम्मि दुक्खं । 4. 3. 2
अर्थात् वन की गहनता से जहाँ दिशामण्डल अलक्ष्य था और प्रभातकाल को भी कठिनाई से जाना जाता था।
इदमित्थं, काव्यशास्त्रीय सम्पत्ति एवं महाकाव्योचित विषय प्रतिपत्ति की दृष्टि से अपभ्रंश का यह महाकाव्य अपने युग का “कालदर्पण" है साथ ही शाश्वत मानवीय जीवनधारा का उद्भावक होने के कारण आज भी इसकी प्रासंगिकता अक्षुण्ण है । कुल मिलाकर कथ्य की कमनीयता और शिल्प की सुषमा से समन्वित सम्पूर्ण कथा-साहित्य का प्रतिनिधित्व करनेवाली यह कलावरेण्य काव्यकृति अपभ्रंश के शिखर-महाकाव्य के रूप में धुरिकीर्तनीय है । निस्सन्देह, यह महाकाव्य महाकवि बाणभट्ट की "मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे हरन्ति सन्तो मणिनपुरा इव" उक्ति को अक्षरशः अन्वर्थ करता है ।