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________________ जैन विद्या ने धनपाल का समय यद्यपि 14 वीं शती बताया था पर डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इनका समय 10 वीं शती स्वीकार किया है 15 जो श्रसमीचीन नहीं है । इसका दूसरा नाम "सुयपंचमीकहा", "ज्ञानपंचमी कहा" या "पंचमीकहा " भी है । भविसयत्तकहा का सर्वप्रथम प्रकाशन जैकोबी ने रोमन लिपि में 1918 में किया । इसके बाद स्व. सी. डी. दलाल तथा पी. डी. गुणे ने गायकवाड़ ओरियन्टल सीरीज में नागरी लिपि में 1923 में किया 116 45 धनपाल की उक्त एक ही रचना प्राप्त है । इसे महाकाव्य के गुणों से पूर्ण होने पर भी महाकाव्य नहीं कहा जा सकता यतः इसमें जीवन की अनुभूतियों का वैविध्य नहीं है, विस्तृत कथा होने पर भी महाकाव्य जैसी उदात्त शैली नहीं है। जैनधर्म के आदर्शों के अनुकूल ही अंगी रस शांत है तथा अपकार का कठोर बदला नहीं दिलाया गया है ( बंधुदत्त के संदर्भ में) । इसमें लोकजीवन के विविध रूप दिखाई देते हैं । कुछ प्रसंग बड़े मार्मिक बन पड़े हैं यथा बंधुदत्त द्वारा भविष्यदत्त को मैनाग द्वीप में अकेला छोड़ना, कमलश्री को भविष्यदत्त के न आने का समाचार मिलना और उसका विलाप करना, अन्त में मिलन आदि । अलंकृत भाषा में गजपुर का वर्णन द्रष्टव्य है " तह गयउरु गाऊँ पहणु जरगजरियच्छरिङ । रणं गणु मुवि सनाखंड महि श्रवयरिऊ || तंग को वहं समत्थु जं वहइह मंडलु गं पसत्थु । जंतु उड- कडल हेहि, मेहे साराइ बहु पारवरेहि ॥ " भविसयत्तचरिउ • अपभ्रंश में ही श्रीधर ने 'भविसयत्तचरिउ' की रचना की । पं. परमानन्द शास्त्री ने सात श्रीधरों का उल्लेख किया है जो संस्कृत और अपभ्रंश के लेखक हैं । 17 श्री हरिवंश कोछड ने पासणाहचरिउ, सुकुमालचरित्र और भविसयत्तचरिउ का रचयिता एक ही श्रीधर को माना है 18 पर डॉ० शास्त्री ने तीनों के रचयिता अलग-अलग स्वीकार किये हैं 119 पासरणाहचरिउ के रचयिता श्रीधर अग्रवाल गोत्रीय बुधगोल्ह और वील्हादेवी के पुत्र थे 120 द्वितीय श्रीधर मुनि थे और "विबुध" उनकी उपाधि थी 121 तृतीय श्रीधर का विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता । द्वितीय श्रीधर उक्त किया है, तदनुसार वि. सं. इनका समय 12 - 13 वीं जयपुर में प्राप्त है । ग्रन्थ के रचयिता हैं । उन्होंने अपने रचनाकाल का उल्लेख 1200 फा. शु. दशमी रविवार को यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ 1 22 अतः शती माना जाना चाहिये । इसकी प्रति आमेर शास्त्र भण्डार
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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