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________________ जैन विद्या यह 1530 श्लोक प्रमाण है । अपभ्रंश की कडवक पद्धति में पद्धड़िया छंद में यह लिखा गया है । इसकी रचना कवि ने चन्द्रवाड नगर में माथुरवंशीय नारायण के पुत्र सुपट्ट साहू की प्रेरणा से उनकी माता के निमित्त की थी। पुष्पिका वाक्य में इसका उल्लेख हुआ है ।23 इसकी कथा में थोड़ा परिवर्तन है यथा-कमलश्री को पहले पुत्र नहीं हुआ, मुनिनिन्दा के कारण धनपति ने कमलश्री को त्यागा, बंधुदत्त द्वारा भविष्यानुरूपा से विवाह की चर्चा किये जाने पर वह मरना चाहती है, वनदेवी स्वप्न में मिलन की बात कहती है आदि । इसमें छह परिच्छेद हैं । मर्मस्पर्शी स्थल और प्रकृति-चित्रण अनूठा है, संवाद रोचक और सहृदयहृदयावर्जक हैं । कमलश्री का एक चित्र है "ता भणइं किसोयरि कमलसिरि ण करमि कमल मुहुल्लउ । पर सुमरंति हे सुउ होइ महु फुट्ट रण मण हियउल्लउ ॥ रोवइ धुवइ एयरण चुव अंसुव जलधारहिं वत्तमो। भुक्खइं खीरण देह तण्हाइय रण मुणई मलिण गत्तमो॥" भविसयत्तचरिउ अपभ्रंश में ही रइधू ने भविसयत्तचरिउ की रचना की। रइधू के पिता का नाम हरिसिंह और माता का विजयश्री था, सावित्री उनकी पत्नी थी। उदयराज नामक उनका एक पुत्र हुा । ये पद्मावती पुरवाल वंशीय काष्ठासंघ माथुरगच्छ की पुष्करणीय शाखा से संबद्ध थे । डॉ. नेमिचन्द शास्त्री, डॉ. राजाराम जैन आदि ने इनका निवासस्थान ग्वालियर सिद्ध किया है । डॉ. जैन ने रइधू साहित्य के अध्ययनोपरान्त निम्न निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं1. रइधू ने भट्टारक गुणकीति को अपना गुरु माना है। 2. उनके रचनाकाल की पूर्वावधि वि. सं. 1457 है। 3. इन्होंने भट्टारक शुभचन्द्र तथा राजा कीतिसिंह (डूंगरसिंह के पुत्र) के बाद की घटनाओं का उल्लेख नहीं किया है। कीर्तिसिंह का अन्तिम उल्लेख वि. सं. 1536 का है अतः रइधू को वि. सं. की 15-16वीं शती का महाकवि मानना चाहिये । डॉ. राजाराम जैन ने उनकी 37 कृतियों का पता लगाया है ।24 भविसयत्तचरिउ भी उनमें एक है। यह उक्त कथा के आधार पर लिखी गयी है । भविष्यदत्तचरित्र विक्रम की 17वीं शताब्दी में प्रानन्दमेरु के प्रशिष्य और पद्ममेरु के शिष्य पद्मसुन्दर ने संस्कृत में भविष्यदत्तचरित्र लिखा । कवि की अन्य दूसरी रचनाओं में प्रसिद्ध महाकाव्य 'रायमल्लाभ्युदय' है । भविष्यदत्तचरित्र का रचनाकाल वि. सं. 1614 लिखा है । अतः पद्मसुन्दर का समय सत्रहवीं शती मानना चाहिये । श्री नाथूराम प्रेमी ने फा. शु. सप्तमी - वि. सं. 1615 की लिखित भविष्यदत्तचरित्र की अपूर्ण प्रति ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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