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जैनविद्या
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- "भविसयत्तकहा" के कथाकार धनपाल ने भी अपनी इस कृति में अपने विषय में लिखा है
धक्कडवरिणवंसि माएसरहो समुन्भविरण ।
घणसिरिदेविसुएण विरइउ सरसइसंभविण ॥ 22. 9 अर्थात्-धक्कड़ वणिक्वंश में माहेश्वर तथा धनश्री देवी से उत्पन्न पुत्र अर्थात् धनपाल ने सरस्वती की कृपा से इस कृति की रचना की है।
"जैन साहित्य और इतिहास" में प्रख्यात विद्वान् श्री नाथूराम प्रेमी ने तीन धनपाल नामक व्यक्तियों का उल्लेख किया है । धक्कड़ या धर्कट वणिक जाति के होते हैं । प्रेमीजी के अनुसार “धम्मपरिक्खा" के रचयिता महाकवि हरिषेण भी "धक्कड़ वंश" के ही हैं।
धक्कड़वंशीय धनपाल ही "भविसयत्तकहा" के रचयिता हैं । शेष दो धनपालों में एक ब्राह्मण हैं जो मुंज के राजकवि थे और दूसरे पल्लिवाल (पालीवाल) हैं जो गद्य-रचना "तिलकमंजरी" के रचनाकार हैं।'
. धनपाल प्रणीत “भविसयत्तकहा" में काव्यत्व-महाकवि धनपाल को जैकोबी तथा पी. डी. गुणे, सी. डी. दलाल, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एवं नाथूराम प्रेमी प्रादि अधिकांश विद्वानों ने 10 वीं शती का रचनाकार माना है, जो उनकी भाषा से संपुष्ट भी होता है । “भविसयत्तकहा" में कवि ने परम्परित काव्यरूढ़ियों, कथा-प्रतीकों एवं कवि-समयों का प्रयोग किया, जिससे तत्कालीन परिवेश मुखर हो उठा है । धनपाल जैन मतावलम्बी हैं, अतः अपनी इस काव्य कृति का प्रारम्भ वे "पादितीर्थंकर ऋषभजिन" की वन्दना से करते हैं
जिरणसासरिण सातु गिद्ध अपावकलंकमलु ।
सम्मतविसेसु. निसुगहुं सुयपंचमिहि फलु ॥ पणविप्पिणु जिणु तइलोयबंषु वुत्तरतरभवरिणवूढखंषु ।
परहंतु अणंतु महंतु संत सिउ संकतु सुहुमु प्रणाइवंतु । इस भावपूर्ण "जिनवन्दना" के साथ ही कवि धनपाल परम्परित रूप में महाकवि स्वयंभूदेव की ही भांति “बुधजन-प्रशंसा" एवं “दुर्जननिन्दा" भी करते हैं -
बुहयण संभालमि तुम्ह तेत्थु हउं मंदबुद्धि णिग्गुणु रिणरत्यु। . 1.2
जो पुणु खलु खुड्डु अइठ्ठ संगु सो कि अभत्थिउ देइ अंगु । परच्छिद्दसएहि वावारू जासु गुणवंत कहिमि कि कोवि तास ॥
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