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________________ 22 जैनविद्या जीवन से समंजित करके चित्रित किया है । प्रेम तथा धार्मिक चिन्तन प्राकृत-अपभ्रंश के कथा-काव्यों में समानान्तर चलते हैं, इसीलिए अपभ्रंश के कथाकाव्यों में गहन जीवनदृष्टि के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण उच्चतर जीवन-मूल्यों की अभिव्यक्ति भी हमें मिलती है। प्राकृत-भाषा के कथा-साहित्य की मूल्यवान् कृतियाँ आज भी ग्रंथागारों में जिज्ञासु अध्येताओं की प्रतीक्षा कर रही हैं । अपभ्रंश में भी कथाकाव्य की लम्बी परम्परा हमें मिलती है। महाकवि धनपाल की "भविसयत्तकहा", कवि लाखू की "जिनदत्तकथा", कवि सिद्ध साधारण की "विलासवइकहा", कवि रइधू की "सिरिपालकहा" जैसी कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं जिनसे एक समृद्ध परम्परा की झलक सहज ही हमें मिलती है । डॉ० देवेन्द्रकुमार ने अपभ्रंश कथाकाव्य की एक विशिष्ट प्रवृत्ति की ओर इंगित किया है-"अनेक छोटी-छोटी कथाएँ व्रत-संबंधी आख्यानों को लेकर या धार्मिक प्रभाव बताने के लिए लोकाख्यानों को लेकर रची गई हैं ।" वस्तुतः मध्यकालीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के विविध रूपों का सजीव चित्रण इन कथाओं में हुआ है । अतः ये महत्त्वपूर्ण बन गई हैं। अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट महाकवि "धणवाल" अर्थात् धनपाल ने अपनी कथाकृति “भविसत्तकहा" (भविसयत्तकहा) में "श्रुतपंचमीव्रत" का महत्त्व निरूपित किया है । अहो लोयहो सुयपंचमीविहाणु। इउ जंतं चितिय सुहनिहाणु ॥ 22. 10. 1. महाकवि धनपाल की यह कृति अपभ्रंश काव्यधारा के उत्कर्ष का उत्कृष्ट उदाहरण कही जा सकती है। "भविसयत्तकहा" के महत्त्व को रेखांकित करते हुए डॉ० पी० डी० गुणे ने लिखा था “The importance of the discovery of this work by these two scholars lies in the fact that this is the first big Apbhramsa work made available to the world of oriental Scholars."4 निश्चय ही अपभ्रंश-कथाकाव्य-परम्परा में महाकवि धनपाल की इस कथाकृति "भविसयत्तकहा” का विशेष स्थान है क्योंकि इसमें 10 वीं शताब्दी के भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा साहित्यिक परिवेश मुखर हो उठा है। - महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व विवेचन- हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम अपने महान् साहित्यकारों के व्यक्तित्व के विषय में बहुत कम जानते हैं। अपभ्रंश के आदि महाकवि स्वयंभूदेव से पूर्व के कवि चतुर्मुख आदि का परिचय हमें क्या मिलेगा जबकि स्वयंभूदेव, पुष्पदन्त आदि महाकवियों का ही परिचय हमें नहीं मिल पाया है ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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