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जैन विद्या
सं. 1081 माना है। उन्होंने इन्हें पुरानी राजस्थानी का कवि माना है। यद्यपि इनकी भाषा प्रायः साहित्यिक अपभ्रंश ही है, किन्तु हिन्दी साहित्य के आदिकाल की परम्परा को समझने में इनके ग्रंथ का अपूर्व योगदान है। डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने दसवीं से तेरहवीं शती के मध्य धनपाल का स्थितिकाल संभावित माना है । 'भविसयत्तकहा' की भाषा की तुलना करते हुए डॉ. हर्मन जैकोबी का अनुमान है कि धनपाल दसवीं शती में रहे होंगे । धनपाल के 'भविसयत्तकहा' पर बारहवीं शती के विबुध श्रीधर के 'भविष्यदत्तचरित्र' का प्रभाव लक्षित करके डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री धनपाल को चौदहवीं शती में विद्यमान होना उचित मानते हैं । इतिहास के आलोक में इस ग्रंथ से जो तथ्य प्राप्त होते हैं उनसे यह काल उचित प्रतीत होता है। धनपाल ने अपने ग्रंथ में दिल्ली के सिंहासन पर मुहम्मदशाह (1325-51 ई.) का शासन करना लिखा है । सन् 1328 ई. में प्राचार्य जिनप्रभसूरि का मुहम्मदशाह को धर्मश्रवण कराना एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है । इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कवि धनपाल का चौदहवीं शताब्दी ई. में 'भविसयत्तकहा' की रचना करना सुनिश्चित प्रतीत होता है। यह काल-निर्धारण नवीनतम अनुसंधान के प्राधार पर है।
कथानक-भविष्यदत्त की कथा जैनधर्म में एक लोकप्रिय कथा रही है। भविस की कहानी करुण एवं मार्मिक है । भविष्यदत्तकथा एक लौकिक कथा है । इसके तीन खण्ड हैं। इसके प्रथम खण्ड में भविष्यदत्त के वैभव का वर्णन है । द्वितीय खण्ड में कुरुराज और तक्षशिलाराज के युद्ध में भविष्यदत्त की प्रमुख भूमिका एवं विजय का वर्णन है । ग्रंथ के ततीय खण्ड में भविष्यदत्त के तथा उनके साथियों के पूर्वजन्म और भविष्य-जन्म का वर्णन है । एक मुनि के उपदेश से भविष्यदत्त वैराग्य धारण करता है । अन्त में श्रुतपंचमी के माहात्म्य का वर्णन है । कथा के प्रारम्भ में भी इसी व्रत का संकेत है। कवि ने इस ग्रंथ में बड़े सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किये हैं । कथा के प्रथम खण्ड में शृंगार रस, द्वितीय में वीर रस '
और तृतीय में शान्त रस की योजना हुई है । नखशिख-वर्णन प्राचीन परम्परा के अनुकूल है। इस काव्य में अनेक सुन्दर प्राकृतिक वर्णन हैं । कवि ने काव्य में सादृश्यमूलक अलंकारों का सुन्दर विनियोग करके उसे सौष्ठव प्रदान किया है । भाषा में लोकोक्तियों और वाग्धारागों तथा सूक्तियों एवं सुभाषितों का सुन्दर प्रयोग मिलता है । ग्रंथ में प्रायः मात्रिक वृत्त अधिक हैं।
प्रबन्ध संघटना-कथाबन्ध की दृष्टि से भविसयत्तकहा प्रबन्ध-काव्य है किन्तु वस्तुतः यह कथाकाव्य ही है क्योंकि इसमें कथा का विकास ही प्रमुख है । इसमें धार्मिक भावना की प्रधानता होने से, अन्त में अवान्तर कथानों के सन्निवेश से कथानक गतिहीन एवं प्रभावहीन बन गया है । अवान्तर कथानों का उद्देश्य कर्म-विपाक दिखाना एवं धार्मिक व्रत माहात्म्य की
ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना रहा है । यह पौराणिक प्रभाव है । विटरनित्ज ने 'भविसयत्तकहा' को रोमांचक महाकाव्य माना है । डॉ. शम्भूनाथसिंह के मतानुसार रोमांचक कथाकाव्यों में कार्यान्विति नहीं होती और न नाटकीय तत्त्व ही अधिक होते हैं । उनका कथानक प्रवाहमय और वैविध्यपूर्ण अधिक होता है पर उसमें कसावट और थोड़े में अधिक