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जैनविद्या
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कहने का गुण जो महाकाव्य का प्रधान लक्षण है, नहीं होता । डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने भविसयत्तकहा को प्रबन्धकाव्य के मौलिक गुणों की दृष्टि से एक सफल रचना माना है । उनका कथन है-"प्रस्तुत काव्य में कथानक गतिशील और कसा हुआ है। केवल पूर्वजन्म की अवान्तर कथाओं में कुछ शैथिल्य प्रतीत होता है । परन्तु कथा और घटनाओं का आदि से अन्त तक पूर्ण सामंजस्य तथा कार्यान्विति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । इसलिए प्रबंध-काव्य के मौलिक गुणों की दृष्टि से यह एक सफल रचना कही जा सकती है क्योंकि इसमें कथानक का विस्तार कथा-तत्त्व के लिए न होकर चरित्र-चित्रण के लिए हुआ है जो महाकाव्य का प्रधान गुण माना जाता है । चरित्र-चित्रण में मनोवैज्ञानिकता का सन्निवेश इस काव्य की विशेषता है । फिर कथानक में नाटकीय तत्त्वों का भी पूर्ण समावेश है । वस्तुतः इस काव्य का महत्त्व तीन बातों में है-पौराणिकता से हटकर लोक-जीवन का यथार्थ-चित्रण करना, काव्य-रूढ़ियों का समाहार कर कथा को प्रबंधकाव्य का रूप देना और उसे संवेदनीय बनाना ।"
काव्य-रूढ़ियां—प्रस्तुत काव्य में अग्रांकित सात काव्य-रूढ़ियां प्रयुक्त हुई हैं - 1. मंगलाचरण 2. विनय प्रदर्शन 3. काव्य-रचना का प्रयोजन 4. सज्जन-दुर्जन वर्णन 5. वन्दना (प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में स्तुति या वन्दना) 6. श्रोता-वक्ता शैली 7. अन्त में प्रात्मपरिचय ।
लगभग ये सभी काव्य-रूढ़ियां हमें अपभ्रंश के सन्देश रासक, अवधी के पद्मावत और रामचरितमानस आदि में कुछ परिवर्तन के साथ दिखाई पड़ती हैं ।
वस्तुवर्णन-भविसयत्तकहा कथाकाव्य में परम्परामुक्त वस्तु-परिगणन शैली के साथ ही लोक-प्रचलित शैली में भी जन-जीवन का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। नगर-वर्णन, नख-शिख-वर्णन, प्रकृति-वर्णन और वन-वर्णन में कोई विशेषता नहीं दिखाई पड़ती।
चरित्रचित्रण-भविसयत्तकहा में प्रमुख रूप से विरोधी प्रवृत्तियोंवाले वर्गगत चरित्र हैं । एक वर्ग में भविष्यदत्त और कमलश्री हैं तो दूसरे में बन्धुदत्त और सरूपा । राजा भूपाल और धनवइ व्यक्तिगत विशेषताओं से संयुक्त चरित्र हैं। राजा न्यायी, हित और अहित का विवेक रखनेवाला तथा अन्याय का प्रतिकार करनेवाला है। धनवइ लोकनीति और रीति का अनुसरण करता हुआ भी बिना किसी अपवाद के दूसरा विवाह करने हेतु