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________________ जैन विद्या १ स्वीकारते थे । ऋग्वेद और अथर्ववेद में इनका वर्णन मिलता है। ये महिंसा, अस्तेय आदि व्रतों का पालन करने के कारण इस नाम से अभिहित किये जाते थे । वेदों में प्राप्य श्रार्ह, वातरशन आदि नाम भी इनके ही थे । भगवान् प्रादिनाथ से लेकर अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ तथा महावीर इसी परम्परा के थे। इनकी संस्कृति श्रमरण नाम से विख्यात थी । ये व्रात्य, अर्हत् अथवा वातरशन ही वर्तमान के जैन हैं । महावीर काल में होनेवाले गौतम बुद्ध भी इसी श्रमण संस्कृति के थे । इससे यह भलीभांति प्रमाणित होता है कि जैन और बौद्ध जनसाधारण के हितार्थ अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्रादिकाल से ही शास्त्रीय भाषा का सहारा न ले तत्तत्कालीन बोलचाल की प्रचलित लोकभाषा का व्यवहार करते थे और उसी में ग्रंथ रचना भी करते थे यद्यपि आगे चलकर परिस्थितियों ने उन्हें संस्कृत में ग्रंथरचना के लिए विवश कर दिया । व्याकरण के नियमों द्वारा किसी भाषा का रूप स्थिर हो जाने पर वह जनसाधारण के उपयोग की भाषा नहीं रहती, केवल कतिपय शिक्षित समुदाय की भाषा बन कर रह जाती है । संस्कृत और प्राकृत के साथ भी ऐसा ही हुआ । किन्तु भाषा का प्रवाह रुकता नहीं वह सर्वदा गतिमान रहता है और परिणामस्वरूप नये नये भाषारूपों का जन्म होता रहता है प्राकृत भाषा के शास्त्रीय भाषा बन जाने पर जिस भाषा ने उसका स्थान ग्रहण किया वह थी अपभ्रंश । श्री चन्द्रधर शर्मा "गुलेरी" ने इसे ही पुरानी हिन्दी के नाम से पुकारा है। जूनी गुजराती और पुरानी राजस्थानी इसी के भाषारूपों में से हैं । डॉ. उदयनारायण तिवाड़ी ने अपनी रचना "हिन्दी भाषा के उद्गम और विकास" में यह सच ही कहा है कि प्रत्येक प्राधुनिक प्रार्य भाषा को अपभ्रंश की स्थिति पार करनी पड़ी है। मुनि जिनविजयजी के अनुसार वर्तमान गुजराती, मराठी, हिन्दी, पंजाबी, सिंधी, बंगाली, असमी, उडिया मादि भारत के पश्चिम, उत्तर तथा पूर्वी भागों में . बोली जानेवाली देशी भाषाओं की सगी जननी अपभ्रंश भाषा ही है । डॉ. हीरालाल माहेश्वरी का एक लेख " अपभ्रंश साहित्य और मणिधारी जिनचन्द्रसूरि " शीर्षक से बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ में पृष्ठ 356 पर प्रकाशित हुआ है जिसमें दी गई एक तालिका के अनुसार अब तक प्राप्य अपभ्रंश भाषा के सारे ही महाकाव्य जैन हैं । खण्ड काव्यों में भी केवल दो को छोड़कर सारी ही जैन रचनाएं हैं। मुक्तककाव्यों में भी अधिकांश भाग जैनरचनाओं का ही है । जैन चाहे वे साधु हों अथवा गृहस्थ, साहित्य का निर्माण लौकिक यश अथवा सम्पदा प्राप्ति के लिए नहीं करते । उनका ध्येय होता है श्रात्मशुद्धि, सामाजिक जागरण एवं लोक मंगल । " साहित्य वह है जो हितकारी हो" साहित्य की इस परिभाषा को वे स्वीकारते थे । केवल लिखने के लिए ही प्रथवा 'कला कला के लिए है" ऐसा मानकर उन्होंने लिखा हो ऐसा नहीं है ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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