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जनविद्या
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संधि छः में पाया जाता है । जब कोई प्रिय व्यक्ति बहुत दिन प्रवास में हो तो उसकी माता या स्त्री या कोई अन्य विरहाकुल स्त्री कौए को किसी उपाय से उड़ जाने को बाध्य कर देती है और उससे मानो विनय करती है कि वह उसे अपने साथ ले पाए । कवि कहता है, कमलश्री "दुक्खमहम्णव-खित्ती (डूबी)" है-उसे प्रासन, शयन, वचन नहीं भा रहे हैं । वह कौए को उड़ाकर उससे विनय करती है
ररि वायस जइ किपि वियारहिं भविसयत्तु महु पंगणि प्राणहिं । ' 6.1.7
ऐसी दुःखावस्था में मनुष्य, विशेषतः स्त्री इष्ट-पूर्ति के हेतु व्रत प्रादि ग्रहण करती है । आम तौर पर इस सम्बन्ध में मार्गदर्शन किया जाता है किसी बुजुर्ग द्वारा या गुरु द्वारा, सिद्ध-साधक द्वारा । संयोग से कमलश्री को एक सुव्रता नाम्नी महाव्रतधारिणी तापसी के दर्शन हुए। उसने कमलश्री को सुयपंचमी व्रत ग्रहण करने का उपदेश दिया। तब उसने व्रत धारण करके उसका निर्वाह किया (6.2.3) । यहां कहना न होगा कि धनपाल ने "सुयपंचमी" व्रत का माहात्म्य सूचित करने के लिए ही इस कथा का वर्णन किया है । कवि ने कथा के उपसंहार में भी सुयपंचमी व्रत की महत्ता की ओर संकेत करने के हेतु कहा है
अहो लोयहो सुयपंचमिविहाणु इउ जं तं चिन्तिय सुहनिहाणु । दूरयरपणासियपावरेणु एह जा सा वुच्चइ कामधेण ॥ फलु देइ जहिच्छिउ मत्तलोइ चिन्तामणि वुच्चइ तेण लोइ ॥
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इस व्रत का पारी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
भविसयत्तकहा के पात्र जैनमतावलम्बी हैं, वे भक्तिशील हैं । कवि ने यथास्थान इनमें से कई पात्रों की धार्मिक प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है। शिशु भविष्यदत्त को जिनमन्दिर में ले जाया गया और वहीं पर उसके कान में जिन-नाम का उच्चारण करके उसका नामकरण किया गया (1.16), उसे गुरुगृह में "मुणिमक्खर" अर्थात् जैनागम आदि सिखाया गया (2.2) । तिलक द्वीप में जिन-मन्दिर था। भविष्यदत्त ने मन्दिर में जाकर जिनेन्द्र चन्द्रप्रभ का पूजन किया, स्तुति की (4.7, 12) । भविष्यदत्त और भविष्यानुरूपा का विवाह जिन-मन्दिर में सम्पन्न हुमा (422) । कमलश्री ने जैन परम्परा के अनुसार सुयपंचमी का व्रत रखा । इस प्रकार के और भी कई स्थानों का उल्लेख किया जा सकता है।
जनदर्शन में कर्म-सिद्धान्त का बहुत महत्त्व है । पूर्वजन्म में कृत-कर्म के भले बुरे फल जीव को भोगने पड़ते हैं। इस कर्म-सिद्धान्त की अोर इस कथा में कई स्थानों पर संकेत किया गया है । पूर्वकृत कर्म के फलस्वरूप कमलश्री पति द्वारा पहले उपेक्षित हुई और पुनः उसका भाग्य उदित हुआ। भविष्यदत्त का सम्पूर्ण जीवन-क्रम उसी कर्म के