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जैनविद्या
परिणामस्वरूप चल रहा था। उसके फलस्वरूप ही मणिभद्र यक्ष उसकी सहायता के लिए दौड़ा । कवि ने इस सिद्धान्त के अनेक पहलुओं पर भविष्यदत्त आदि के शब्दों में प्रकाश डाला है । इस सिद्धान्त के स्पष्टीकरणार्थ ही भविष्यदत्त प्रादि के पूर्वभवों की तथा परवर्ती भवों की कथा कही गयी है। दार्शनिक सिद्धान्तों का विवरण अभिनन्द द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
... संसार में ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण कम नहीं हैं जिन्होंने सर्वोच्च स्थिति तक पहुंचने पर सीधे वैराग्य को अपना लिया । जो जितना अधिक भोगी हो, परिग्रही हो, वह उतना ही त्यागी-विरागी बन सकता है। भविष्यदत्त द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करना इसी का यथार्थ नमूना है।
अन्त में इतना कहना पर्याप्त होगा कि कवि ने अपने चारों प्रोर के समाज के व्यक्ति, परिवार, शासन-व्यवस्था प्रादि में जो जीवन-प्रवृत्तियां देखीं, उनका चित्र, एक पौराणिक कथा के माध्यम से, उसके विशिष्ट उद्देश्य को नजर-अन्दाज न करते हुए, भविसयत्तकहा में अंकित करने का सफल प्रयास किया है।