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________________ 104 जैनविधा के अनुसार रघु प्रादि प्रागैतिहासिक काल के राजाओं ने, यहां तक कि मध्ययुग के कई शासकों ने पराजित राजानों को सम्मानपूर्वक उनके अपने-अपने राज्य लौटा दिये थे । यह प्रादर्शनिष्ठ यथार्थ वा यथार्थाश्रित आदर्श है । प्रादर्श कहीं हमारे जीवन की परिधि के बाहर नहीं हैं, वे उसके अन्दर ही हैं । लक्ष्य मानकर उन्हें यथाशक्ति कार्यान्वित करने का यत्न करना चाहिए । राजा भूपाल और भविष्यदत्त ने जिन राज-पुरुषों को सम्मानपूर्वक बुलाया उनको समाहत करके उन्हें उनके राज्य वापिस देकर लौटा दिया। भारत के इतिहास में ऐसी उदारता और उदात्तता के अनेक उदाहरण हैं, उन्हें कल्पनामात्र नहीं समझना चाहिए। - "भविसयत्तकहा" में बालक की नामकरण-विधि का उल्लेख है (1.16) । यह विधि सम्प्रदायविशेष की परम्परा के अनुसार सम्पन्न की जाती है । कवि ने कहा हैवस्त्राभरण विभूषित सुन्दर स्त्रियां पुत्र-जन्म के बाद एक महीना व्यतीत हो जाने पर माता (हरिबल-दुहिता, अर्थात् धनपति की पत्नी) और उसके नव-जात शिशु को लेकर जिन-मन्दिर गयीं । बालक को जिनवर के दर्शन कराये गये, पंच-मंगल कहे गये और बालक के कान में जिनेन्द्र का नामोच्चारण करके उसका नामकरण किया गया। कहना न होगा, धनपति धन-सम्पन्न था इसलिए उस समय रत्नों की बौछार की गयी। धनपति-कमलश्री के विवाह का वर्णन पढ़ते ही बनता है । उससे तत्कालीन परिपाटी का स्वरूप समझ में प्राता है । मण्डप सजाना, तोरण तैयार करना, मोतियों से रंगावली सजाना, होम करना, वाद्य-वादन, बहुविध भोज्य वस्तुओं का सेवन कराना, . ताम्बूलसेवन प्रादि का उल्लेख कवि ने किया है (1.2) । कमलश्री की सखियों ने वर को लक्ष्य करके हास-परिहास-मय कई बातें कहीं। उनसे यह चित्र जीवित-सा बन गया है । कवि ने कई अन्यान्य मान्यताओं का, संकेतों का उल्लेख किया है । ये मान्यताएं सभी युगों में एक-सी हैं । उदाहरण के लिए देखिए-कमलश्री की सखियां यथाकाल पुत्रवती हुई, तब तक वह स्वयं सन्तान-हीन थी । अतः व्याकुल होकर उसने एक दिन एक मुनिपुंगव से पूछा-"परमेसर प्रकियस्थ किलेसई किं अवसाणि अम्हतउ होसइ (1.14.3) तदनन्तर स्वप्न में उसने पुत्रजन्म के विषय में संकेत पाया । सन्तानोत्पत्ति के सम्बन्ध में किसी साधु वा सिद्धपुरुष या मुनि से पृच्छा करने का रिवाज आज भी कालबाह्य नहीं माना जाता । होनी की सूचना स्वप्न द्वारा प्राप्त हो सकती है, यह मान्यता भी पुराणकाल से चली आ रही है। शिशु भविष्यदत्त की क्रीड़ामों का वर्णन स्वभावोक्ति अलंकार का उत्तम उदाहरण है । सम्भ्रान्त जैन परिवार में उत्पन्न बालक को भी शिक्षा के लिए "उज्झासाल" अर्थात् "उपाध्याय के घर" भेजा जाता था । वहाँ पर छात्र को व्याकरण, कोश आदि अनेक कलाओं की शिक्षा दी जाती थी । ज्योतिष, मंत्र-तंत्र, धनुर्विज्ञान, मल्लयुद्ध, गज-तुरंगचालन आदि का ज्ञान कराया जाता था. (2.2)। जन मान्यता का एक उदाहरण
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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