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________________ जनविद्या 103-- सम्बन्धी प्रासक्ति में पाये जाते हैं । हाँ, इसमें एक और बात को भी समाविष्ट किया जा सकता है-वह है सत्ता या प्रभुता की लालसा। यह प्रभुता भूमि पर, धन पर, सेवकों और प्रजाजनों पर हो सकती है । वैसे ही दूसरे को झुकाकर, उसके अहंकार को मिट्टी में मिलाकर अपनी प्रभुता-बड़ाई को स्थापित करने की कामना भी इसमें समाविष्ट है । ____जान पड़ता है-पोदनपुर-नरेश उद्दण्ड है, प्रभुता का प्यासा है । चित्रांग नामक दूत ने राजसभा में अपने स्वामी का यह सन्देश सुनाया जिसमें स्पष्ट चुनौती ही दी जा रही थी। उसने पहले अभिमानपूर्वक "पोदन परमेश्वर" का महिमा-गान किया और कहा-हय-गज-रथ मेंटस्वरूप दिये जाएं (13.3..1) और धनपति-सुत दीर्घबाहु भविष्यदत्त द्वारा तिलक द्वीप से लायी हुई कन्या तथा महारानी प्रियसुन्दरी की गुणसारभूता कन्या सुमित्रा भी साथ में दी जाय (13.4), कहना न होगा कि मध्ययुग, वा प्राचीनयुग में कुछ राजा इस प्रकार की मांग प्रस्तुत करते थे और यदि उसे स्वीकार न किया जाता तो वे उसकी बलात् पूर्ति करा लेने के उद्देश्य से उस देश पर प्राक्रमण किया करते थे। उसी प्रवृत्ति का . यह नमूना है। इस चित्र का दूसरा अंश भी यथार्थ सा जान पड़ता है, देखिए-राजा भूपाल ने प्रियसुन्दरी, पृथुमति जैसी स्त्रियों तथा भविष्यदत्त जैसे गुणवान् लोगों और अन्यान्य मंत्रियों को बुलाकर उनसे विचार विमर्श किया । सभा में दिये हुए सुझाव वैसे ही हैं जैसे आम तौर पर पाये जाते हैं। मंत्रणा देनेवालों में अनन्त जैसे लोग भी होते हैं जो आत्माभिमान-शून्य होते हैं, शत्रु से गुप्तरूप से मिले हुए होते हैं। अनन्त, धनपति और भविष्यदत्त के कथन इस परिस्थिति पर प्रकाश डालते हैं। आगे चलकर अनन्त तो खुले रूप से चित्रांग के साथ चला गया । हमारे यहां शासनव्यवस्था को अन्दर से कुरेद-कुरेद कर खोखली बनाने वाले तत्त्व अपरिचित नहीं हैं-अनन्त उसी का नमूना है । दूत सम्बन्धी व्यवहार में विशिष्ट नीति निर्धारित है । इस दृष्टि से यह प्रसंग देखने योग्य है। चित्रांग की अनर्गल बात सुनकर भविष्यदत्त क्रुद्ध होकर बोलापुण पुणुवि सुमित्तहि कयपणीह कप्पेविण करयलि घरह जीह । उक्खणिवि नयण छिन्देवि नासु मुंडिवि सिर खरि संजवहो दासु॥ 13.12.5-6 भविष्यदत्त ने इस प्रकार उस दूत की जिह्वा को काटने, प्रांखों को उखाड़ने, नाक को छेदने और सिर को मुंडाकर उसे गर्दभ पर बैठाने की इच्छा व्यक्त की । पर धनपति ने उसे टोक कर कहा-प्रतिपक्ष के दूत पर इस प्रकार प्रहार नहीं करना चाहिए, उसमें अपयश होगा। (13.12.9) - यह समस्त प्रसंग नाट्यमय है। ऐसा जान पड़ता है कि उसे हम रंग-मंच पर मंचित रूप में देख रहे हैं। युद्ध में विजयश्री ने भविष्यदत्त का वरण किया, तदनन्तर राजा भूपाल ने उसका अपनी कन्या सुमित्रा से विवाह करके उसे अपने आधे राज्य का स्वामी बना दिया। देखिए, अब विजेता ने जित राजाओं के साथ कैसा व्यवहार किया। भारतीय परम्परा
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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