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________________ अङ्क १०-११] जैनसमाजके शिक्षित। २८९ विरुद्ध जो कोई कुछ कहे उसको नास्तिक धर्म- महान कार्योको सम्पादन करते हैं और इस कारण ज्ञानशून्य आदि कहकर उसके पीछे पड़ जाना। वे धनमें, पदमें, मानमें, अधिकारमें और संसारके ऐसा करनेमें न तो उनको कोई हेतु ढूँढ़ना अनुभव आदि सब ही बातोंमें अपने संस्कृत पड़ता है और न किसी प्रकारके अनुभव प्राप्त विद्वानोंसे कई गुना बढ़िया रहते हैं, अतः सच करनेकी ही जरूरत होती है। क्योंकि इधर अपने पूछिये तो जातिकी उन्नतिका भार इन्हीं वाबू अनुकूल आवाज निकालते हुए देखकर साधारण लोगोंपर है न कि प्राचीन विद्याके जानकर जनता तो इनकी वाहवाही करने लग जाती है, बेचारे संस्कृतके विद्वानोंपर ! परन्तु शोक है कि और उधर ये पंडित लोग भी जाति भरको अपना इन बाबूलोगोंने अपने कर्तव्यका कुछ भी पालन साथी देखकर अपनी महाविजय समझ बैठते हैं। नहीं किया, बल्कि यों कहिये कि इन्होंने उसकी इन्हें इस बातका जरा भी खयाल नहीं आता कि ओर ध्यान भी नहीं दिया । हमारे संस्कृतके हमारा तो यह कर्तव्य था कि हम नासमझ विद्वान् यद्यपि जातिकी उन्नतिका कोई विशेष लोगोंको लोकमूढ़ताओं और रूढियोंके पंजेसे कार्य नहीं कर रहे हैं तो भी जातिकी पाठशानिकालकर समयानुकूल सत्यपथपर ले जावें, सो लाओंसे अध्यापक बनकर अपनी विद्याका लाभ न करके हम तो उलटा उन्हींके पथपर चलने अपनी जातिको जरूर पहुंचा रहे हैं, परन्तु लग गये हैं और उन्हीकी बोली बोलते हैं; इस हमारे बाबू लोग बिलकुल ही मौन हैं । वे न तो कारण हमारी तो बहुत ही भारी हार तथा जातिके प्रति अपना कुछ कर्तव्य समझते हैं, पतित दशा हो गई है। और न उसके लिये अपनी कुछ शक्तिका व्यय .. अब रहे बी. ए. और एम० ए० आदि ही करते हैं । ऐसी हालतमें यदि यह कहा जाय पदवीधारी हमारे बाबूंलोग, जो संख्यामें हमारे कि इनमें और जातिके अन्य साधारण अनपढ़ संस्कृत विद्वानोंसे दुगने तथा तिगने हैं । इनसे लोगोंमें कुछ भी अन्तर नहीं है, तो कुछ भी जातिकी उन्नति होनेकी बहुत ज्यादा आशा अनुचित न होगा। थी, क्योंकि इन्होंने प्राचीन संस्कृत भाषाके बल्कि हमारी रायमें, एक प्रकारसे, इन बाबू स्थानमें वह प्रचलित अंग्रेजी भाषा सीखी है जो लोगोंके कारण जातिकी उन्नतिमें बड़ी भारी इस समय भारतकी राज्यभाषा हो रही है, बाधा पहुँच रही है। ये लोग. यों तो सबहीको जिसके द्वारा इस समय संसार भरका व्यापार मूर्ख ठहराकर बड़ी बड़ी ऊँची बातें बनाया करते चल रहा है और जगत भरको प्रत्येक विषयकी हैं, सब ही रीतिरिवाजोंको दूषित बताया करते हैं, उच्च शिक्षा प्राप्त हो रही है । इसके सिवाय हमारे परन्तु जब इनके यहाँ कोई ऐसा कारण आन संस्कृतके पंडित तो इस समय अपनी विद्याके पड़ता है, जिसमें बिरादरीके सम्मलित होनेकी द्वारा ज्यादासे ज्यादा १००-१२५ रुपये मही- जरूरत होती है तो बुरीसे बुरी और फिजूलसे नेका ही रोजगार प्राप्त कर सकते हैं और वह भी फिजूल रीतियोंको भी ये उस ही तरह पूरा करने प्रायः जैनपाठशालाओंके अध्यापक बनकर, लग जाते हैं जिस तरह कि मूर्ख स्त्रियाँ किया परन्तु हमारे अंग्रेजीके विद्वान तो अपनी विद्याके करती हैं; यहाँतक कि जिन छोटी मोटी रीतिद्वारा राज्यमें ही हजारों रुपये महीनका रोजगार योंको बिरादरीके लोग भी उपेक्षाकी दृष्टिसे पा लेते हैं और वकील, डाक्टर, इंजीनियर तथा देखते हैं और कोई उनको करे या न करे अथवा . न्यायाधीश आदि बनकर संसारके अनेकानेक जिस प्रकार चाहे करे इसकी कुछ भी परवाह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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