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________________ जैनहितैषी [भाग १४ नहीं करते हैं ऐसी फिजूल रीतियोंको भी ये बाबू और पानीका बरफ आदि भी पीने लग जाते हैं, लोग ज्योंकी त्यों ही करके दिखाते हैं। उनके कोई कोई बाजारोंमें बिकते हुए बिस्कुट भी ऐसा करनेसे रूढ़ीके दासोंकी बड़ीभारी मजबूती खाने लगते हैं और इस बातकी जरा भी परवाह हो जाती है और सबहीके हृदयमें यह बात नहीं करते हैं कि इन सोडावाटर, बर्फ, बिस्कट जम जाती है कि रूढ़ियाँ तो ऐसी अटल और आदिके बनानेमें पानी चमड़ेकी मशकका वर्ता पालन करने योग्य होती हैं कि बड़ी बड़ी बातें गया था या काँसे पतिलके कलशोंका और इनके बनानेवाले बाबूलोग भी उन पर चलना अपना बनानेमें क्या क्या मसाला डाला गया था। इस परमधर्म समझते हैं। फल इसका यह होता है प्रकारकी अन्य भी अनेक ढीलें इनके खानकि अगर जातिका कोई साधारण मनुष्य किसी पानमें हो जाती हैं, जैसा कि कभी बगैर कुरीति या दुखदाई रूढिको तोड़ना या किसी- नहाये या बगैर कपड़े उतारे ही रोटी खा प्रकारकी लोकमूढ़तासे निकलना चाहता है तो लेना, रोटी खाते समय कोई एक आध कपड़ा भी लोग उसके विरोधी हो जाते हैं और उदा- पहने रहना, रोटी खाते हुए यदि किसी अन्य हरणके तौर पर कहने लग जाते हैं कि जब जातिके हिन्दूका हाथ उसके किसी कपड़े ऐसे ऐसे बाबूलोग भी इन रीतियोंका पालन या शरीरसे छू जाय तो खाना नहीं छोड़ना, करते हैं तो इनको छोड़नेका तुम्हारा साहस तो बाजारकी कचौरी पूरी या मिठाई आदिक महामूर्खता और पागलपनके सिवाय और कुछ खाने लगना, मेज पर रखकर भी खा लेना, भी नहीं हो सकता है। इस प्रकार इन बाबूलोगोंके अन्य जातिके हिन्दू मुसलमान बालकोंके पास उदाहरणसे जातिमेंसे कोई भी कुरीति दूर होने बैठे हुए भी खा लेना, बूट पहने हुए पान चबाना नहीं पाती, बल्कि कुरीतियाँ ज्यादा ज्यादा मज- या इलायची आदिक खा लेना और सूतकी बूत होती जाती हैं। बनी हुई दरी तथा फर्श पर बूट पहने ही ___परन्तु ये बाबूलोग ऐसा करते क्यों हैं ? फिरते रहना, इत्यादि। कारण इसका यह है कि बी० ए० और एम० विद्याध्ययनके इस बहुत बड़े लम्बे चौड़े ए. की उपाधि प्राप्त करने और फिर उसके पीछे कालमें इस प्रकारकी ढीलोंका इन्हें इतना विकालत इंजीनियरी या डाक्टरी आदि पास अधिक अभ्यास हो जाता है कि अपने कारकरनेतकके लिये इन बाबू लोगोंको पाँच सात. बारी जीवनमें इन ढीलोंको छोड़कर फिरसे वर्षकी उमरसे लेकर २३-२४ वर्षकी उमरतक प्राचीन बंधनोंका ग्रहण करना इनके लिये प्रायः बराबर विद्याध्ययनमें लगा रहना पड़ता है, असम्भव हो जाता है । इनकी आजीविका भी समें अनमान दस बारह वर्ष तो उनको अपने बहुत करके ऐसी ही होता है जिसमें इन्हें अपने मा-बापोंसे अलग किसी बोर्डिंगमें ही रहना जैसे अंग्रेजी लिखे पढ़ोंकी ही अधिक संगति होता है जहाँ इनका रातदिनका समागम हिन्दू रहती है और अनेक अंग्रेजी दफ्तरोंमें नित्य मुसलमानोंकी अनेक जातिके बालकोंसे रहता उन्हीं सूतके बने हुए दरीफर्शीपर बैठकर है । इसलिये इनकी खान-पानकी छूत-छात बहुत दफ्तरका काम करना होता है जिन पर भंगी ढीली पड़ जाती है-यहाँतक कि इनमेंसे बहुतसे ही झाडू देता है । इस वास्ते अपनी इस तो चूढ़े-चमारों और हिन्दू-मुसलमान आदि चाहे चिराभ्यस्त परिणतिको छोड़कर नवीन प्रका- . जिस जातिके लोगोंका बनाया हुआ सोडावाटर रके कठिन बंधनोंमें पड़ना उन्हें और भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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