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जैनहितैषी
भाग १४ होनेके कारण यद्यपि इस जातिके लोग अन्य रियोंको थोड़ा थोड़ा माल बेचकर ही अपनेको पुरुषोंकी अपेक्षा सरकारको कई गुणा ज्यादा महान व्यापारी समझने लग जाते हैं । रहे ग्रामोंके टैक्स देते हैं, और अनेक प्रकारके सरकारी दूकानदार, सो वे तो अपने ग्राममें प्रति सप्ताह चंदों तथा कोंमें भी भर भर थैलियाँ रुपयोंकी पीठ (हाट) भरने पर एक दिन अर्थात् महीनेमें देकर सरकारका खजाना भरते रहते हैं । परन्तु चार दिन ही कुछ कमा पाते हैं और बाकीके फिर भी सरकारमें इस जातिका सम्मान, राज्य- २६ दिन हाथ पर हाथ धर कर प्रायः खाली प्रबन्धमें इस जातिकी सम्मतिका वजन और ही बैठे रहते हैं या ताश-गंजफा खेल कर और इसकी पुकार तथा चिल्लाहट पर सरकारका चिलम तम्बाकू पीकर अपने दिन बिताते हैं । ध्यान इतना भी नहीं है जितना कि बहुत ही इस प्रकार जिधर भी दृष्टि डाली जाती है कम टैक्स देनेवालों या बिल्कुल ही न देनेवालोंसे उधर इस जातिकी प्रत्येक विषयमें ही अत्यंत सम्बंध रखता है । कारण इसका यही है कि हीन दशा दिखाई देती है । नतीजा इसका यही इस जाति के लोगोंके हृदयमें स्वयं अपनी प्रतिष्ठा निकलता है कि यद्यपि इस जातिमें भारतकी नहीं है, वे जैसे बने तैसे रुपया कमाते रहने अन्य जातियोंकी अपेक्षा तिगुणे विद्वान हैं
और उस रुपयेको जातिकी रीति-रस्मोंमें आँख परन्तु वे अपना कुछ भी कर्तव्य पालन नहीं कर मीच कर लुटाते रहनेकी अपने आपको केवल रहे हैं। शास्त्री, आचार्य, विशारद और तीर्थ एक मशीन समझते हैं । इसी कारण जड़ आदि उपाधिधारी संस्कृतके विद्वानोंको तो पदार्थके समान ज्ञानशून्य रहकर न तो वे व्याकरणके सूत्रोंको घोकने, शृंगारादि रसोंसे संसारकी गतिका ही कुछ अनुभव प्राप्त करते हैं भरे हुए काव्योंका मनन करके संस्कृत भाषाकी.
और न राज्यकी नीति--रीतिको ही समझनेकी जानकारी प्राप्त करने और नयप्रमाणके भेदकोई कोशिश करते हैं।
प्रभेदों तथा लक्षणोंको याद करनेमें ही अपना . रही व्यापार और कमाईकी बात, सो इसका बहुत समय बिताना पड़ता है। साथ ही धर्मभी उनको कुछ विशेष ज्ञान नहीं है और न ग्रन्थोंको भी बहुत करके कंठस्थ ही कर लेना इस व्यापारविद्याको वे सीखना ही चाहते हैं। होता है। उन्हें न तो जातिकी दशाका ही कुछ वे तो बहुत करके बचपनमें औंचे-दौंचे विकट- अनुभव होता है और न संसारकी गतिका। जैनपहाड़े याद कर लेना ही जानते हैं; फल जिसका शास्त्रोंको घोक कर वे यह कहना तो जरूर यह हो रहा है कि यूरुपके व्यापारी बड़े बड़े सीख जाते हैं कि प्रत्येक कार्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, कालिजोंमें व्यापारकी उच्च शिक्षा प्राप्त करके काल, भावके अनुसार होता है, परन्तु उनको इस
और पोलिटिकल इकानोमीकी पूर्ण शिक्षा पाकर बातकी जराभी खबर नहीं कि अब क्या समय हिन्दुस्तानमें आते हैं और सोना, चाँदी, रूई, बीत रहा है, कैसी हवा चल रही है, कैसा राज्य अनाज आदि सब ही वस्तुओंका बाजार अपने है, किन लोगोंसे हमको वास्ता पड़ रहा है, क्या हाथमें कर लेते हैं और हिन्दुस्तानके मूर्ख हमारी योग्यता है और क्या दशा है; बल्कि व्यापारी सोचते ही रह जाते हैं कि क्यों एक- वे तो रूढिके दास बनकर सीधा मार्ग यह ग्रहण दम अमुक वस्तुका भाव घट गया और अमुकका कर लेते हैं कि जो कुछ भी प्रचलित है-चाहे वह बढ़ गया । वास्तवमें ये लोग तो आपसमें सट्टा लाभदायक हो या हानिकारक, समयके अनुकूल लगाकर या दलाली करके अथवा विदेशी व्यापा- होया प्रतिकूल-उसहीका पोषण करना और उसके
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