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________________ अङ्क १०-११ ] कि गाँव गाँव और नगर नगरमें अनेक गोठें तथा धड़े खड़े होकर धर्मकार्यों में भी लड़ाई दंगे होने लग गये हैं, कहीं कहीं मंदिरोंतकको भी ताले लग जाते हैं, कहीं कहीं अनंत चौदसके दिन दो दो उत्सव निकलने लगते हैं और कहीं अन्य प्रकार से ही कहींके जैनीभाई अपनी फूट दिखाकर जैनधर्मकी प्रभावना करते हैं ! जैन समाजके शिक्षित । व्यर्थव्यय और कुरीतियोंने तो मानो इस जातिमें अपना अड्डा ही बना लिया है और यहाँ तक काबू पाया है कि चाहे कोई कितना ही कमावे, अपने बाल बच्चोंके खाने पहनने और पालन-पोषण में चाहे जितनी कमी करके कौड़ी कौड़ी बचावे तो भी जातिकी रीति : रस्मोंका पूरा नहीं पड़ सकता यहाँतक कि, घरकी सब पूँजी लगा देने और जितना कर्ज मिल सकता हो वह सब लेकर लुटा देने पर भी बिरादरी के स्त्रीपु - रुषों के मुख से यही सुननेमें आता है कि ' कुछ नहीं किया, ' अपने बाप-दादाओंका नाम भी डबो दिया। कुरीतियोंके विषयमें तो इससे अधिक और क्या कहा जाय कि आठ आठ दस दस वर्षके बच्चोंतकके ब्याह इस जातिमें होते हैं, पचास पचास साठ साठ बरसके बुड्ढों को उनकी पोतियों के बराबर दस दस बरसकी नन्हीं नन्हीं बच्चियाँ इस जातिमें बेची जाती हैं और ये बुड्ढे उनको गोद खिलाने के स्थान में अपनी जोरू बनाते हैं, विवाह रचाकर दोनों तरफकी बिरादरी के सामने उनसे फेरे फिरवाते हैं और बिरादरी के लोग लड्डू कचौरी खाकर बिलकुल मुँह सियेसे रह जाते हैं-चूँ तक भी नहीं करने पाते। इसी प्रकार बिरादरीके किसी भाईके जाने पर नुक्ता कराने और हलवा पूरी खानेमें भी ये लोग कुछ नहीं शरमाते, बल्कि जो न खिलावे उसीको उलटा शरमाते हैं और यदि बस जा तो जाति से ही बाहर कर दिखाते हैं। ऐसी ऐसी बातोंके कारण यदि जातिका चल Jain Education International २८७ नीचातिनीच दशाको पहुँच जाना मान लिया जाय तो इसमें कुछ भी आश्चर्य न होगा । जब धर्मकी तरफ खयाल करते हैं तो उसकी भी ऐसी ही दशा पाते हैं । अव्वल तो इस जैनजातिमें मिथ्यातका ही इतना भारी प्रचार है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता | हिन्दू मुसलमानोंके देवी देवताओं समाधियों और कबरों को खुल्लमखुल्ला पूजनेवाले, हिन्दू मुसलमानोंके यंत्रों मंत्रों तथा गंडे तावीजोंको माननेवाले और हिन्दू ब्राह्मणोंसे उनके अनेक अनुष्ठान करानेवाले जैनियोंकी इस समय कोई कमी नहीं है; बल्किसे सबसे बढ़िया बात यह हो रही है कि विवाहसंस्कार तक कई प्रान्तों में बहुत करके हिन्दूधर्मकी ही विवाहपद्धति ही अनुसार होता है, जिसमें उन्हींके सब देवताओं का पूजन किया जाता है और उन्हीं के धर्मकी सब क्रियायें होती हैं । इस प्रकार जब कि दोनों ही पक्षोंकी बिरादरी के सामने और और अनेक नगरोंके भाइयोंके सन्मुख ही विवाह जैसे महान संस्कार में मिथ्यात्वका सेवन होता है तब इस जातिमें मिथ्यात्व के प्रचारकी हद्द ही क्या रह जाती है ? यह ठीक है कि अनेक स्थानों पर जैनपद्धतिके अनुसार भी विवाह होने लग गये हैं परन्तु जब उनमेंसे किसी किसी स्थान से यह बात भी सुननेमें आती है कि एक पक्षकी तरफसे जैनपद्धतिके अनुसार विवाह होनेका महान् आग्रह होने पर भी दूसरे पक्ष जैनियोंने इस बातको नहीं माना और लाचार वह विवाह हिन्दू विवाहपद्धति के अनुसार ही हुआ तो क्या ऐसी दशा में यह कहना अनुचित हो जाता है कि जैनजातिमें मिथ्यात्वका पूरा पूरा साम्राज्य हो गया है ? जातिके सन्मान और पूछ-प्रतीतिके विषय में भी जब कुछ गौर किया जाता है तो ऐसी ही गिरी हुई हालत नजर आती है । व्यापारी जाति For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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