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________________ पुस्तकालयों की सहायता । अङ्क १०-११ ] वहाँपर अनेक और भी नये नये मंदिर तैयार हो गये, जिनमें पूजा तक नहीं होती । तीर्थोके अतिरिक्त कहीं कहीं पर इतने मंदिर हैं जितने कि वहाँपर जैनियों के घर भी नहीं हैं । इतने पर भी प्रत्येक मंदिरमें बहुसंख्यक प्रतिमाएँ हैं जिनकी सँभालतक नहीं होती । पुराने जीर्ण. शीर्ण मंदिर नष्ट भले ही हो जावें, पर हमारी जाति के धनिक सज्जन, और पंचायतियोंके मुखिया अपने द्रव्यका व्यय घरके कार्यों में अर्थात् संतानों की ब्याह सगाई में, वेश्याओंके नाच मुजरोंमें करते हैं और या धार्मिक दृष्टिसे नये मंदिर बनवाकर रथप्रतिष्ठा आदिमें करते हैं । रूढ़ि, भेडियाधसान बुद्धि और मानकषाय इन त्रिकूटोंके कारण पदवियोंके लिये, अथवा बुढ़ापेमें ब्याह शादी करके संतानोत्पाइनके लिये हमारे धनिक और मुखिया लोग इतने लालायित रहते हैं, कि मेरे पास उसके लिखनेके लिये शब्द नहीं हैं। सिंघई बनना मानों इंद्रका सिंहासन प्राप्त करना है । जो विशेष श्रीमान् हैं उनकी इच्छा केवल सिंघई पदवीसे ही तृप्त नहीं होती, किन्तु वे उत्तरोत्तर और भी विशेष पदवियोंकी आकांक्षा रखते हुए सिंघईसे सवाईसिंघई, सेठ, सवाई सेठ, श्रीमंत सेठ और महा महा श्रीमंत सेठ बनने के लिये लालायित रहते हैं । इन्हीं मंदिरोंकी अधिकताको देखकर ब-हाड़ - शालापत्रक ' के संपादकने जैन पंथाची माहिती ” शीर्षक लेखमें इधर उधर की बातें लिख कर जैनियोंके कार्यकी विवेचना करते हुए मंदिरोंके निर्माणरूपी एक बभारी कार्यका दिग्दर्शन कराया है। उन्होंने लिखा है " जैनियों का आज तकका कर्त्तव्य • कर्म मंदिरोंके निर्माण करने का ही रहा है । " आप लोगोंको शायद इस परसे स्वाभिमान उत्पन्न हो, पर स्वाभिमानकी बात नहीं, यह हृदयभेदक कटाक्ष है। कटाक्ष न भी हो तो " CL Jain Education International ३२५ क्या यही हमारे कर्त्तव्यकी परम सीमा है ? हमको लज्जा आनी चाहिए कि अन्य लोग हमारा कार्य केवल मंदिर निर्माण करनेका ही बतलाते हैं ! हमारे पास इसका उत्तर भी क्या है ? यदि हमने कोई अन्य आर्थिक महत्कार्य किया होता, सार्वजनिक हितका कार्य स्थापित किया होता, या किसी सार्वजनिक कार्योंमें योग दिया होता तो आज हमें यह आक्षेप न सुनना पड़ता । हमारी कौमके मुखिया और धनिक लोगोंकी दातृत्वलालसाका श्रेय इन त्रिकृटोंको ही मिलना चाहिये । इसी लिये ये लोग न तो समयकी आवश्यकताको जानते . है और न द्रव्यका उपयोग करना ही इन्हें आता है। ये तो केवल इन त्रिकूटोंके शिकार बन गये हैं । ये बातें कुछ वर्ष पहलेकी हैं । वर्तमानसमयका प्रवाह पहले के समान जोरों पर नहीं है, तब भी प्रतिवर्ष दो चार नये मंदिरोंके निर्माणके साथ साथ रथप्रतिष्ठाएँ भी होती ही रहती हैं । अब भी हम लोग नहीं चेतते । यद्यपि नये मंदिर बनाना कम हो गया है, तथापि उसके बदले में लोग मंदिरोंकी मीनाकारी आदि अनेक सजावटके कार्योंमें बेहद रुपया खर्च करते रहते हैं । इन्हीं कार्योंके सबबसे हमारी वर्तमान संस्थाएँ जर्जरित अवस्थामें अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं । हमारी परंपरागत रूढ़ियों, भेड़ियाधसान बुद्धि और मान कषायके कुसंस्कार जैनसमाजके धनिकोंको अपने कर्तव्यपथ पर आरूढ़ नहीं होने देते । यदि ऐसी ही अवस्था बराबर बनी रही तो भविष्यत् में वर्तमानकी अनेक संस्थाएँ मृत्युमुखमें पतित हुए बिना न रहेंगी और समाजको उन्नति के बदलेमें हानि ही उठानी होगी । वर्तमान में जितनी प्रसिद्ध जैनसंस्थाएँ हैं उनका उद्देश विद्यार्थियोंको धार्मिक और लौकिक शिक्षा देनेका है । वे अपने उद्देश्य की पूर्ति For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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