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जैनहितैषी -
पुस्तकालयोंकी सहायता ।
( ले० - गुलाबचंद जैन वैद्य, अमरावती । ) " सार्वजनिक पुस्तकालय जनसमुदायके विश्वविद्यालय हैं । "
वास्तव में देखा जाय तो जितना लाभ पुस्तकालयों द्वारा हो सकता है, उतना अन्य संस्थाओं द्वारा नहीं हो सकता । अन्य विद्यासंस्था ओंसे शिक्षा केवल विद्यार्थियों को ही मिलती
दूसरोंको नहीं । परंतु पुस्तकालयोंसे समाजकी प्रायः सभी व्यक्तियोंको शिक्षा मिला करती है । पुस्तकालय के द्वारा बच्चोंसे लगाकर वृद्ध अवस्था तक के सभी स्त्री पुरुष समरूपमें अपनी इच्छानुसार ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । संसारमें ज्ञानप्राप्तिका सर्वश्रेष्ठ और सहज उपाय पुस्तकालय ही है । पुस्तकालयों के समान उदारतापूर्वक ज्ञानामृतकी वर्षा करनेवाला दूसरा कोई भी उपाय इस समय नहीं है । जिस देश, समाज और जातिमें पुस्तकालयोंका आदर है, जहाँपर असंख्य पुस्तकालय विद्यमान हैं • और जहाँके कार्नेगी सरीखे महा धनकुबेर अपनी अटूट संपत्तिको रूढ़ियोंके प्रवाह में न बहाकर समयोपयोगी आवश्यकीय कार्यों में दान करते हैं, वह अमेरिका देश, वहाँका समाज और जाति कैसे अज्ञ और धनहीन रह सकती है ? नहीं कदापि नहीं । ' सार्वजनिक पुस्तका - लय मनुष्यसमाज के धर्ममंदिरोंसे बढ़कर हैं, ' ' सार्वजनिक पुस्तकालय मानव समुदायके वि श्वविद्यालय हैं,' ऐसी जहाँके देशवासियोंकी मनोभावनाएँ हैं, फिर वह देश कला, कौशल्य, विज्ञानादिका महान् केंद्र तथा धनवैभवसंपन्न रहा, तो इसमें क्या आश्चर्य है । जिस समय हमारे भारतवर्ष में तथा हमारे जैनसमाजमें इसी
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[ भाग १४
प्रकारकी उच्च भावनाएँ थीं उससमय हमारे धार्मिक और लौकिक वैभवको देखकर अन्य धर्म और देश मारे लज्जाके नतमस्तक दिखाई देते थे । लेकिन दुःखकी बात है, कि कुछ शताब्दियोंसे हमारा जैन समाज ग्रंथालयोंके महत्त्वको बिलकुल भूल गया । इसीसे ऐसी हीन और शोचनीय दशा हो गई ।
हमारे प्राचीन जैन महर्षियोंने दशधर्म के स्वरूपमें चार प्रकारका त्याग ( दान ) बतलाया है, उसमें शास्त्रदान भी है । इस शास्त्रदानमें तीनों ( आहार, औषध और अभय ) दान गर्भित हो जाते हैं । अनेक विद्वान् शास्त्रदानको विद्यादानमें गर्भित कर विद्यादानकी ही महिमा गाते हैं । समाजमें विद्याका अभाव देखकर उनका आलाप एक प्रकार से उचित भी है । किन्तु वास्तवमें शास्त्रदानका अर्थ शास्त्रालयोंका निर्माण करना है । ग्रंथालयों के द्वारा धर्मका प्रचार और सामाजिक उन्नति बहुत कुछ हो सकती है । इसी लिए हमारे पूर्वज जिनमंदिरों के साथ साथ ग्रंथसंग्रहालय ( शास्त्रडार ) स्थापित करते आए हैं । परन्तु खेद है कि हमारे ही जैनसमाज पर विशेष कर परिवार जाति पर रूढ़ियोंका, भेड़ियाधसान बुद्धि के अंधेरका और मानकषायका इतना आक्रमण हुआ है कि उसके द्वारा समाजका सत्त्व नष्ट हो गया। रूढ़ियोंने उसे अपना दास बना लिया, भेड़ियाधसान बुद्धिने समाजमें अपना आडंबर फैलाया और इसी आडंबर के द्वारा मानकषाय प्रज्वलित हो गई । इन त्रिकूटोंके एकत्र होने से धड़ाधड़ मंदिरोंपर मंदिर बनने लगे । फिर किसीका लक्ष्य शास्त्रोद्धारकी तरफ नहीं गया । इन त्रिकूटों के आक्रमणसे मंदिर बनवाने और रथ चलानेका उद्देश भ्रष्ट होता गया । यहाँ कि जहाँपर अनेक मंदिर होने के कारण नये मंदिरोंकी किंचित भी आवश्यकता नहीं थी
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