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________________ ३२१ अङ्क १०-११) हमारी शिक्षा-संस्थाएँ। कल्पनाको यदि ठीक समझ लिया तो इसमें धार्मिक कृत्योंको मिहनताना लेकर करनेवाले हमारा दोष ही क्या है ? यथार्थमें हम उच्चशिक्षाके सजातीय भाईयोंको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। विरोधी नहीं हैं, विरोधी हैं तो केवल आजकलकी हमारे यहाँ तो प्रायः मुनि और गृहत्यागी शिक्षाप्रणालीके । क्यों कि उसके द्वारा शिक्षा प्राप्त श्रावक ही गृहस्थोंसे भोजन, शास्त्र तथा पिच्छी आदि ग्रहण करनेके अधिकारी हैं। यही कारण करनेमें हमें जितना अर्थव्यय करना और कष्ट _ है कि ब्राह्मणोंकी पद्धतिका अनुकरण करनेवाले उठाना पड़ता है उतना लाभ नहीं होता । इसीसे हमारे पंडितजन इन संस्थाओंसे समाजको संतोहम उच्च शिक्षा प्राप्त करानेमें प्रमादी बन रहे हैं षित करनेमें विफल हुए हैं। परंतु अब इन लोऔर यही कारण है कि हम, अपनी उदासीनताके गोंको अपने कामकी समालोचना करने में इस वास्तविक कारणको ठीक तौर पर न जतला प्रमादी न होना चाहिये, अब भी कुछ नहीं सकनेकी वजहसे, शिक्षाकी चर्चा छिड़ते ही बिगडा है। 'मौनी बाबा' बन जाते हैं। कला बहत्तर पुरुषकी, तामें दो सरदार । जिस समय शिक्षाका अभाव कह कर ___एक जीवकी जीविका, दूजी जीव उद्धार ।। समाजमें शिक्षाप्रचारके लिये आन्दोलन जारी जबतक नीतिके इस दोहेपर ध्यान देकर काम न किया गया था उस समय लोगोंको यही सूझी किया जायगा तबतक जातिमें शिक्षाका प्रचार होना थी कि जहाँ तहाँ संस्थाएँ खुलनेसे शिक्षाका प्रचार हो जायगा । उनकी इस भोली समझने असम्भव है । उसे आजकलके विद्यालयोंमें धार्मिक ही उन्हें आज इस परमोपकारी कार्यसे उदासीन शिक्षाके साथ व्यावहारिक शिक्षाका प्रबंध करना बना दिया है । वे बेचारे तो संस्थाओंकी पठन- होगा और अपनी ज्ञानप्रसार चाहनेवाली इच्छाको प्रणाली रचने और उनके प्रबंध करनेका भार पूर्ण करने के लिये ऐसे मिडिलस्कूल (पाठशाला), पंडितोंपर रखकर इस आशासे निश्चिन्त हो हाईस्कूल ( विद्यालय), कालेज (महाविद्यागये कि ये लोग हमारी आवश्यकताओंको लय ) खोलने पड़ेंगे जिनमें जीविकाके साधनों अवश्य दूर करेंगे, परंतु उनकी वह आशा की शिक्षा प्रधानतः देशभाषामें दी जाय । प्राचीन सफलीभूत नहीं हुई । पंडितोंने जिस पाठ्यप्र जैनसाहित्यके जाननेके लिये प्राकृत, संस्कृतादि णालीका आश्रय लिया वह उस समाजकी थी जिसके यहाँ पठन, पाठन, यज्ञ, हवन आदि भाषाएँ और शासकों तथा विदेशीव्यापारियोंसे धार्मिक कृत्य करने तथा वादविवादमें पांडित्य व्यवहार करनक ालय अग व्यवहार करनेके लिये अँगरेजीभाषा सीखने की प्रकट करने योग्य ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे ही जीवकी भी आवश्यकता है परंतु वह उतने ही अंशमें, जीविका चलती और अंतमें जीवका उद्धार जितनेसे दूसरेके भाव समझ सकें और अपने होना माना जाता है । साथ ही, इन कृत्योंके कर- दूसरों पर प्रकट कर सकें। नेपर ही उस समाजके व्यक्तियोंकी प्रतिष्ठा होती वर्तमानमें जैनियोंकी जितनी शिक्षा संस्थाएँ - है। परंतु हमारी समाजमें यह बात नहीं है। हम हैं वे सब स्वतंत्र हैं और अपनी अपनी ढफली लोग भगवानकी पूजा स्वयं करते हैं, भगवानके अपना अपना राग आलापने में मस्त है। उनके प्रबंनिकट अपनी प्रार्थना किसी दूसरे व्यक्तिके धक और कार्यकर्ता अपनी अपनी संस्थाकी द्वारा पहुँचाना अच्छा नहीं समझते, बल्कि पढ़ाई और व्यवस्थाकी सदैव प्रशंसा ही किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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