SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० . जैनहितैर्षा [भाग १४ दोनों दल अपनी ही धुनमें मस्त हैं । जब बिना व्यापार किये अथवा हिसाब-किताब लिखे सुनो तब इनसे यही सुननेको मिलता है कि काम नहीं चलता, अतएव हमारे लिये व्यापाअभी विद्यालय थोड़े हैं, लोग अपने लड़कोंको रिक शिक्षा परम आवश्यक है और यही कारण पड़नेके लिये नहीं भेजते । बाबुओंको बिना है कि अपनी शिक्षासंस्थाओंमें इसका अभाव दस बीस जैन हाईस्कूल और चार छै जैन- देखकर हम लोग उनसे उदासीन होते जाते हैं। कालेज खुले समाजकी उदासीनता घटनेकी हम लोग अपने लड़कोंको पढ़ानेमें लाभ तो आशा नहीं दिखती । उनको रात दिन यही समझते हैं परंतु उच्च शिक्षा दिलानेमें प्रमादी धुन रहती है कि समाजमें ग्रेज्युएटोंकी संख्या हैं। अपनी निजी शालाओंमें व्यावहारिक विषखूब बढ़ाई जावे और यह तभी हो सकेगा जब योंकी शिक्षाकी कमी देख वहाँ बालकोंको भेजजैन हाईस्कूल और कालेज काफी संख्यामें नेमें विशेष लाभ नहीं समझते । जब कोई हमसे खुलेंगे । शिक्षाप्रचारक विद्यालय, कालेज कहता है कि लड़का मिडिल पास हो गया आदिकी वृद्धि और स्थापनासे लाभ तो अवश्य है इसे अब हाईस्कूलमें क्यों नहीं भेजते, तो हमहोगा परंतु इन दोनों दलवालोंने अभीतक इसका से यही कहते बनता है कि क्या हमें उससे नहीं किया है कि उस लाभसे समाजकी नौकरी कराना है ? कामलायक उसने पढ़ ही क्षाविषयक उदासीनतामें कितनी कमी लिया है, अब दुकानमें बैठाल कर व्यापार होगी। हमारी उदासीनता वास्तवमें उस समय सिखायँगे । यद्यपि हम उच्च शिक्षासे अनभिज्ञ स समय हमारी संतानको उपयुक्त हैं तथापि हमाग उपर्युक्त कथन सारहीन नहीं व्यावहारिक शिक्षा देनेवाली संस्थाओंकी स्थापना है। हम प्रतिवर्ष देखते हैं कि हमारे यहाँ हाईहोकर उनका परिचालन भलीभाँति होने लगेगा। स्कूलों और कालेजोंकी परीक्षाओंमें बैठे हुए हम बणिक् हैं, हमारी जीविकाका द्वार छात्र निर्वाहके लिये नौकरी ढूँढ़ने में घोर परिबाणिज्य है, जिन्दगीमें पद पद पर काम पड़ने- श्रम करते हैं, नौकरी चाहे वह कितने ही परिवाले (जीवोंके ग्यारहवें प्राण) धनकी प्राप्तिका श्रमकी क्यों न हो परंतु हो ऐसी जिसमें कुरहमारा प्रतिष्ठित और सुखसाध्य मार्ग व्यापार ही सीपर बैठना और टेबिल पर कागज रखकर है। व्यापारियोंका ही हमारे यहाँ अधिक मान है। लिखनेको मिले। ये विचारे वैसे भी इतने कमअपरिचित व्यक्तिके पारचयके लिये हम उसके जोर और साहसहीन हो जाते हैं कि यदि शास्त्रज्ञानकी विशेष पूँछताछ न करके प्रायः कहीं परीक्षामें फेल हो गये तो महीनों रोते रहते उसके व्यवसायको ही पूँछा करते हैं। अपरिमित हैं और कई एक तो विद्याभ्यासको ही तिलांजलि साहित्यका ज्ञाता और अतुलनीय बलशाली दे बैठते हैं। शिक्षाविभागने पठनक्रममें साहित्य जैनी यदि व्यापारमें पटु नहीं है तो हम उसका गणित भूगोल आदिकी भरमार तो कर दी है परंतु प्रायः उतना मान नहीं करते जितना कि इन पढ़नेके पश्चात्, हमें ही नहीं किंतु अन्य व्यवसायदोनों गुणोंसे शून्य व्यापारकुशल व्यक्तिका वालोंको भी उनसे कितनी कम सहायता मिलती करते हैं। पैतृक सम्पत्ति पानेवाले धनिक जैन है उसे सभी जानते हैं । अपने घरमें लाखोंका भले ही व्यापार न करें, अपने कारोबारका व्यापार होते हुए भी, एक सिंघईजीको बी. ए. सम्हालना और हिसाब किताबका लिखना वे तक पढ़नेके बाद साधारण वेतन पर स्कूल भले ही न जाने; परंतु साधारण स्थितिवालोंका मास्टरका कार्य करते देख हमने अपनी उपर्युक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy