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पर्युषणपर्व अथवा पवित्र जीवनका परिचय।
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समय बहुत फुरसत मिल सकती है, इन दिनों मुनियों साधुओंका समागम हो सकता है, इत्यादि कई कारण इस विषयमें उपस्थित किये जाते हैं। परन्तु उनमें विशेष तथ्य नहीं जान पड़ता । एक तो साधु या मुनि प्रत्येक ग्राम या नगरमें उपस्थित नहीं हो सकते और दूसरे यह पर्व उस समयसे चला आ रहा है जब साधु मुनि बस्तीमें रहते ही न थे । प्राचीन कालमें आजकलकी अपेक्षा खेती अधिकतासे होती थी और जैनधर्मका पालन करनेवाले हज़ारों लाखों श्रावक खेती करते थे, इससे यह कहना भी ठीक नहीं कि फुरसतके कारण ये दिन पसन्द किये गये हैं। एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि भादों सुदी ५ को ही पर्युषण पर्व शुरू हो और चतुर्दशीको ही समाप्त हो, इसका क्या कारण ? क्या इनसे आगे पीछेके दिवसोंमें नैसर्गिक आकर्षण या सौन्दर्य कम हो जाता है ? यदि मेरा कल्पना करनेका अधिकार छीना न जाय तो इसका उत्तर मैं यह दूँगा कि पर्युषण पर्वकी योजना करनेवाले महापुरुष यदि चाहते तो इनसे आगे पीछेके दिनों में भी इतनी ही योग्यताके साथ इस पर्वकी स्थापना कर सकते-उन्हें किसी तिथि या समयपर किसी तरहका राग द्वेष न था; परन्तु जब किसी समाजके लिए कायदे कानून बनाये जाते हैं तब कोई न कोई निश्चित बाततो मुकर्रर करनी ही पड़ती है। जैसे ' ताजिरात हिन्द ' में किसी अपराधके लिए ५०) से १००) तकका दण्ड मुकर्रर है, तो इससे क्या यह समझ लेना चाहिए कि वह अपराध ५०) के ही योग्य है. ४८) या ४९) के योग्य नहीं ? ५०) से १००) तकके बदले ४०) से ६०) या ६०) से १२०) आदि और भी चाहे जो
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