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________________ ५८२ जैनहितैषी संख्या नियत की जा सकती है और उसकी भी पहली संख्याके ही बराबर सार्थकता हो सकती है; परन्तु विचारनेकी बात यह है. कि कोई न कोई संख्या तो नियत करनी ही पड़ेगी; समाजके व्यवहारके लिए यह है भी बहुत आवश्यक । इसी तरह चौदस, पूनों एकम आदि कोई न कोई एक तिथिका ,पर्युषणकी समाप्तिके लिए नियत करना आवश्यक था । क्यों कि एक तो इंस अन्तिम दिनके आवश्यक कार्योंमें क्षमापना, प्रार्थना और विश्वभावना आदि तत्त्वोंका खास तौरसे समावेश किया गया है, और दूसरे ये सब भावनायें सब स्थानोंमें एक ही समय हों तो इनका संयुक्त भावनाबलसे विश्वके मानसिक वातावरण पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान जैनसमाज क्षमापना अथवा हार्दिक औदार्यके रहस्यसे प्रायः अनभिज्ञ है; सांवत्सरिक प्रतिक्रमणमें जो विश्वभाव ( लोकालोकस्वरूपकी कल्पना ) प्राप्त होता है उसकी कल्पना नहीं कर सकता है, और प्रतिक्रमणके अन्तकी प्रार्थनाके तारसे जिन शक्तियोंकी वन्दना की जाती है उनका अपनेमें आकर्षण नहीं कर सकता है, इससे संभव है कि वह उपर्युक्त कारणोंकी गंभीरताको स्वीकार न कर सके; परन्तु उसके मानने न माननेसे उनकी सचाई कम नहीं हो सकती। ___ अब हमें वास्तविक महत्त्वके मुद्देपर आजाना चाहिए । किस प्रकारके जीवनका अभ्यास डालनेके लिए पर्युषण पर्वकी योजना की गई है ? संक्षेपमें यदि हम कहैं कि दैवी जीवनका, तो प्रश्न होता है कि क्या दैवी जीवन मानवीय जीवनसे भिन्न या विरुद्ध है ? नहीं, जिस तरह एक मनुष्यका मनुष्यरूप जीवन होता है, उसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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