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पर्युषण पर्व अथवा पवित्र जीवनका परिचय | ५८३
तरह उसका मृत्युके वादकी स्थितिमें भी जीवन होता है - यह बात दूसरी है कि दोनोंमें स्थूल शरीरके सद्भाव और अभावका भेद हो । जिसतरह मनुष्यके इच्छायें, विचार, भावनायें, परिणाम, आदि बातें मनुष्य जीवनमें होती हैं उसी तरह मृत्युके बाद की स्थितिमें भी रहती हैं । प्रकृति किसी आकस्मिक परिवर्तन या रद्दोबदलको | सहन नहीं कर सकती है । जो मनुष्य मनुष्यरूपमें संकीर्णहृदय है, वह बदलकर देवरूपमें विशाल हृदय कैसे हो जायगा ? इसी तरह मनुष्यकी अवस्थामें जो शोकातुर उदास आनन्दरहित है वह मृत्युके बाद एकाएक छलांग मारकर शुद्ध आनन्दमय सिद्ध स्थितिमें कैसे पहुँच जायगा ? यह मैं पहले ही कह चुका हूँ कि प्रकृतिके कार्योंमें उछल कूद या एकाएक बड़ाभारी परिवर्तन होना संभव नहीं है । इसलिए आनन्दस्वरूपकी भावना भाओ, आनन्द अनुभवन करनेका अभ्यास करो और संकटरूप परिस्थितियोंमें भी आत्मस्थिरता या आनन्दानुभव करना सीखो। ऐसा करनेसे तुम्हें टेव पड़ जायगी, धीरे धीरे वह टेव बलवती हो जायगी और अन्तमें तुम्हें अखण्ड आनन्दरूप स्थितिमें पहुँचा देगी । जिन क्रियाओंकी आत्मिक बलको बढ़ाने के आशय से योजना की गई है, उन सबको करते हुए भी यदि तुम रोती सूरत बनाये रहोगे, उदास रहोगे, सर्वत्र दुःख तथा पापोंकी. ही कल्पना किया करोगे और एक कौनेमें बैठकर बिना अर्थके स्तोत्रपाठ किया करोगे तो उक्त कल्पनाके अनुसार ही तुम्हारी मृत्युके बादका जीवन गढ़ा जायगा । और लोग चाहे जो कहें, पर हम जैनोंको तो 'जन्मवॅटी' के साथ ही यह ज्ञान पिला दिया जाता है कि आकाश में कोई ऐसा राजा नहीं बैठा है जो प्रार्थनाओंकी
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