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________________ युग की प्रवृत्ति की समीक्षा कभी सम्भव नहीं होती। जो भी हो राजेन्द्रसूरिजी का समकालीन भारत भारी तब्दीलियों के बीच से गुजर रहा था। राजनीति और समाज के क्षेत्र में जो परिवर्तन हो रहे थे, वे काफी व्यापक थे, इतने व्यापक कि इन्होंने लगभग सारे देश को चारों ओर से अपनी परिधि में समेट लिया था; किन्तु धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी कुछ परिवर्तन घटित हो रहे थे, जिनकी परिधि सीमित थी तथापि जो थे महत्त्वपूर्ण । राजेन्द्रसूरिजी प्रकृति से क्रान्ति-धर्मी थे। उन्होंने अपने युग की धार्मिक चेतना में जो विकृतियाँ देखीं उनके प्रति एक तीखा विद्रोह और असन्तोष उनमें उठा। १८४५ ई. में उन्होंने यतित्व की दीक्षा ली। यतियों का जीवन किसी समय अत्यधिक निष्कलंक और पवित्र था; किन्तु इधर की दो-तीन शताब्दियों में उसकी अपावनताएँ बढ़ी और वह पतन की डगर पर आ गया। १८६५ ई. में जब राजेन्द्रसूरिजी को अर्थात् रत्नविजयजी को दफ्तरी के पद पर नियुक्त किया गया तब यतियों का जीवन साधन-सुविधाओं के दौर से गुजर रहा था। सामन्ती ठाठ-बाट और राजसी विलास उसमें सम्मिलित हो गये थे। तत्कालीन श्रीपूज्य श्री धरणेन्द्रसूरिजी का जो विवरण मिलता है, उससे यति-जीवन की गिरावट का अन्दाज़ लग जाता है। १८६५ ई. तक भारत के धार्मिक क्षेत्र में कई तब्दीलियाँ हुई थीं। दयानन्द सरस्वती ने लोक कल्याण के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। उन्होंने देश में सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति के लिए 'आर्य समाज' की स्थापना की थी। इस समाज ने देशी भाषा को महत्त्व दिया और देश की चली आती परम्पराों के प्रति आम लोगों की मुरझाती हुई आस्था को पुनरुज्जीवित किया। उधर दक्षिण में श्री नारायण गुरु ने धार्मिक क्रान्ति का नेतृत्व किया। केरल में नीची जाति के लोगों में कई आदिम देवी-देवताओं की उपासना होती थी। इन देवी-देवताओं को उच्चवर्ग घृणा की दृष्टि से देखता था। श्री नारायण गुरु ने बहुदेववाद को निरुत्साहित किया और स्थानीय देवी-देवताओं के स्थान पर एकेश्वरवाद के लिए लोक-मानस तैयार किया। उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया किन्तु ऐसे मन्दिरों की स्थापना की जिनमें उपासना का कोई भेदभाव नहीं था। राजेन्द्रसूरिजी का मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाना और उन्हें जैनमात्र के लिए सुलभ करना इसी सुर के साथ एक सुर है। यद्यपि श्री नारायण गुरु और राजेन्द्रसूरिजी के एक-दूसरे से मिलने या परस्पर विचार-विमर्श करने का कोई प्रश्न ही नहीं है तथापि यह स्पष्ट है कि तत्कालीन हिन्दुस्तान में जो धार्मिक आन्दोलन चल रहे थे उनका स्वर एक जैसा था। प्राय: सभी धार्मिक आन्दोलन कोई-न-कोई सुधार लाना चाहते थे। राजेन्द्रसूरिजी का धार्मिक आन्दोलन भी सुधारवादी था। वे यतियों में तो सुधार करना चाहते ही थे, सामाजिकों में भी क्रान्ति की भावना विकसित करना चाहते थे। श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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