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संगति राजेन्द्रसूरि के “त्रि-स्तुतिक' समाज से थी । उन्होंने बहु-देववाद का विरोध किया था, इसी तरह आगे चलकर राजेन्द्रसूरि ने जैनों में प्रचलित बहुदेववाद को चुनौती दी थी। चौथी थुई को अमान्य करने के पीछे बहुदेववाद को अमान्य करने का तथ्य ही था। यद्यपि आधार भिन्न थे, किन्तु सुधार और परिवर्तन की चेतना एक ही थी। सम्पूर्ण १९ वीं शताब्दी समाजों की स्थापना की शताब्दी है। इस शताब्दी में समाज-सुधार और सांस्कृतिक फेरबदल के लिए जितने समाज और जितनी सोसायटियाँ उत्तर और दक्षिण भारत में बनीं उतनी उसके बाद शायद नहीं। इन समाजों, परिषदों, सोसाइटियों, और एसोसिएशनों का प्रमुख लक्ष्य देशवासियों को आधुनिकता से समायोजित करना और उन पर आयी नयी पराधीनता के विरोध के लिए एक नयी चेतना निर्मित करना था। इस तरह राजेन्द्रसूरि के जन्म से पूर्व ही भारत की फिज़ा सामाजिक सुधारों की गर्माहट से भरी हुई थी और कई तरह के आन्दोलन चलने शुरू हो गये थे। इस शताब्दी में उठी परिवर्तन की लहर ने कई आकार ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था--
१. यूरोप से आती हुई सभ्यता को कुछ लोगों ने ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया; उन्हें लगा कि भारत की सभ्यता रूढ़, जर्जरित और अन्ध-विश्वासों से पटी हुई है, कहीं कुछ भी तर्क-संगत नहीं है। २. एक वर्ग ऐसा था जो भारतीय संस्कृति की महत्ता और उसके विगत गौरव को जानता था; किन्तु वह यह भी स्पष्ट देख रहा था कि किन्हीं कारणों से उसमें कुछ विकार आ गये हैं, जिन्हें दूर किया जा सकता है और नवीन तथा पुरातन के बीच एक रचनात्मक सन्तुलन बनाया जा सकता है। इस वर्ग की पृष्ठभूमि पर पुनरुद्धार की चेतना सक्रिय थी। ३. कुछ लोग समझौतावादी थे। वे कुछ यूरोप और कुछ हिन्दुस्तान के मिश्रण से एक नये ही हिन्दुस्तान को जन्म देना चाहते थे। यह वर्ग अधिक सक्रिय था। एंग्लो-इण्डियन क्रिया-कलाप इस वर्ग की लीला थे। इनका लक्ष्य आधुनिकता को पूरी तरह से स्वीकार करना तो था ही, किन्तु इनके मन में भारत के प्रति कोई असम्मान नहीं था। ४. एक वर्ग ऐसा भी था जिसे आधुनिकता ने छुआ ही नहीं था। यह पुरानी परम्पराओं में जी रहा था। यह यथास्थिति चाहता था। नहीं इच्छा थी इसकी कि कोई तब्दीली हो। जो चला आ रहा है, वह चले; नया कुछ भी क्यों हो; इसने यूरोप से आती साभ्यतिक लहर का प्रतिरोध किया। ५. इन वर्गों के अलावा एक वर्ग ऐसा भी था जो अनिश्चय और सन्देह में झूल रहा था। वह न यह करना चाहता था, न वह; मात्र दर्शक था। यह अधिक खतरनाक़ था। बाद में चलकर इसने पता नहीं किस वर्ग को स्वीकार किया; ढिलमिल प्रवृत्ति का एक ऐसा वर्ग हर युग में होता है, जिसे प्रतीक मानकर उस
तीर्थकर : जून १९७५/९२
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