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राजेन्द्रसूरि का समकालीन भारत
राजेन्द्रसूरि उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए। इस समय हिन्दुस्तान का आकाश परिवर्तन के कुहासे से भरा हुआ था। मुगल, मराठा, राजपूत करीबकरीब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिक चालबजियों के आगे मत्था टेक रहे थे । आपस की फूट ने उन्हें डस लिया था। आधुनिक साधनों से लैस अंग्रेज अपनी सत्ता पुख्ता करने की हर चन्द कोशिश कर रहे थे। उन्होंने हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक ढाँचे पर प्रहार करना आरम्भ कर दिया था। भाषा, शिक्षा, समाज, राजनीति, अर्थ और व्यापार, शिल्प और उद्योग प्राय: सभी क्षेत्रों में उन्होंने दखलन्दाजी शुरू कर दी थी। उन्होंने बड़ी योजित शैली में भारतीयों की अन्तरात्मा पर यह असर डालना आरम्भ किया था कि यूरोप की सभ्यता भारत की परम्परित, जड़ और जर्जरित सभ्यता से श्रेष्ठ है। एक ओर इस तरह का भीतरी प्रहार चल रहा था और दूसरी ओर भारत के उद्योग-धन्धों की रीढ़ तोड़ी जा रही थी। देश का कच्चा माल लगातार इंग्लैंड जा रहा था, और वहाँ के मिलशाह उसे तैयार हालत में भारत की मंडियों में ला रहे थे। स्वदेशी के प्रति लोगों के मन में घृणा के बीज बोये जा रहे थे। कुछ बुद्धिजीवी भारतीय अंग्रेजों की इस चालाकी को ताड़ गये थे। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा देश में लाये गये साधनों का उपयोग कर देशवासियों को जगाना शुरू कर दिया था।
राजेन्द्रसूरि का जन्म राजस्थान में हुआ। राजस्थान हिन्दुस्तान का एक शूरवीर और रणबांकुरा भाग था। भरतपुर, जो राजेन्द्रसूरिजी की जन्म-स्थली थी, राजपूतों की नाक थी। उसके साथ कुछ अन्ध-विश्वास भी जुड़े हुए थे; किन्तु राजेन्द्रसूरि के जन्म के दो वर्ष पूर्व अर्थात् १८२५ में ही भरतपुर परास्त हो चुका था। भारत में प्राय: सभी क्षेत्रों में राजनैतिक निराशाओं के बावजूद सांस्कृतिक और सामाजिक नवजागरण की एक व्यापक लहर आयी हुई थी। इस सन्दर्भ में सबसे पहला नाम आता है, राजा राममोहन राय का जिन्होंने १८२८ ई. में 'ब्रह्म-समाज' की स्थापना की और भारत की अन्तरात्मा को जगाया। भारतीयों को अपने गौरवशाली अतीत की ओर प्रबुद्ध किया और अन्धी परम्पराओं तथा रूढ़ रीति-रिवाजों को तिलांजलि देने के लिए आवश्यक हवा तैयार की। यही कारण था कि १८२९ ई. में लार्ड विलियम बैंटिंक को सती-प्रथा को अवैध घोषित करना पड़ा। ब्रह्म-समाज ने धर्म के क्षेत्र में जो चुनौती दी थी उसकी
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/९१
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