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"सातमा भवन तणो धणी, धन भवने पडयो होय । परण्या पूंठे धन मिले, इम कहे पण्डित लोय ॥ पंचमेश धन भवन में, सुत पूंठे धनवन्त । धन तन स्वामी एक हो, तो स्वधन भोगन्त । लग्न धनेश चौथे पड्या, कहे मातानी लच्छ। क्रूर ग्रह लग्ने पडयो, पथम कन्या दो बच्छ । भोम त्रिकोणे जो हुए, तो लहे पुत्रज एक । मंगल पूजा दष्टि सं, होवे पुत्र अनेक ।। भोम कर्क क्रूर सातमे, पड़े भूडी स्त्री हाथ । भोम अग्यारमे जो पड़े, परणे नहीं धन नाथ ॥ शनि चन्द्र अग्यारमे, पडे स्त्री परणे दोय। चन्द्र भोम छठे पडे, षट् कन्या तस जोय ॥ अग्यारमे क्रूर ग्रह तथा, पंचम शुक्र जो थाय । पेली पुत्री सुत पछे, माता कष्ट सुणाय । कर गह हुए सातमे, कर्कसा पाये नार। बध एकलो पाँचमें, तो जोगी सिरदार ॥ शनिसर दशमे पडे, वाघ चित्ताथी तेह। मरे दशमे वली शुक्र जो, अहि डसवा थी तेह। राहु दसमे जो हुए, मरे अग्नि में जाण । राजेन्द्र सूरि इम भणे, जोतक ने अहिनाण ॥"
वस्तुतः फलित ज्योतिष इतना गम्भीर विषय है कि उसके मर्म को तद्विषयक विद्वान् ही समझ सकता है। इस दृष्टि से श्रीमद् की उक्त पद्य-रचना उनके तत्सम्बन्धी गम्भीर ज्ञान की द्योतक है । श्रीमद् की ज्ञान-पिपासा अबुझ थी। वे आध्यात्मिक साधना, दुर्द्धर तप, गहन अध्ययन और सामाजिक मार्गदर्शन के साथ अन्य कई विषयों का ज्ञान प्राप्त करते रहते थे। उनकी प्रवृत्ति थी दैनंदिन जीवन की हर आवश्यक प्रवृत्ति को परखना और उसे स्पष्टता के साथ औरों के लिए उपलब्ध करना। ज्योतिष-सम्बन्धी उनका ज्ञान विशद था। इतना होते हुए भी उन्होंने कभी किसी पक्ष को अपमानित नहीं किया। उनके मन में प्रतिपक्ष के लिए गहरी सम्मान भावना थी। निन्दक के लिए उन्होंने एक पद में लिखा है : “निन्दक तुं मर जावसी रे, ज्यं पाणी में लूण । 'सूरिराजेन्द्र' की सीखड़ी रे, दूजो निन्दा करेगा कोण ।।” (निन्दक तू उसी तरह मर जाएगा जैसा पानी में नमक घुल जाता है। सन्तों की प्रगाढ़ मैत्री तुझे आत्मसात् कर लेगी; तुझे स्वयं में पचा लेगी। राजेन्द्रसूरि की सीख है, उनकी चिन्ता भी है, कि फिर दूसरा निन्दा कौन करेगा?)
इस तरह राजेन्द्रसूरिजी ने चिन्तन और आचार-शुद्धि के लिए प्रतिपक्ष को उत्कृष्ट समीक्षक की भूमिका में रखा है और उसे पूरा सम्मान दिया है। ज्योतिष जानने के पीछे भी उनके मन में सबके लिए यही वात्सल्य और औदार्य तरंगायित था।
तीर्थंकर : जून १९७५/९०
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