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जाते हैं। उनकी कई स्फुट रचनाएँ यत्र-तत्र ग्रन्थागारों में अरक्षित और अप्रकाशित पड़ी हैं। इनका व्यापक सर्वेक्षण और अध्ययन-विश्लेषण होना चाहिये। मुहूर्तप्रकरण और फलादेश पर श्रीमद् की जो प्रभावक पकड़ थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने सैकड़ों प्राण-प्रतिष्ठाएँ करवायीं किन्तु कहीं कोई विघ्न उपस्थित नहीं हुआ। वे 'ठीक समय पर ठीक काम' करना पसन्द करते थे और इस दृष्टि से उन सारे भारतीय विज्ञानों का उपयोग करना चाहते थे जो अन्धविश्वास नहीं तर्क और गणित की धरती पर विकसित हए थे।
उनका स्पष्ट लक्ष्य था कि ज्ञान को जनता-जनार्दन तक उसी की भाषा और उसी के सहज माध्यमों द्वारा पहँचाया जाए। इस दृष्टि से उन्होंने कई स्तोत्र, कई वन्दनाएँ और कई ज्योतिष सम्बन्धी दोहे लिखे हैं। मुहूर्त-प्रकरण से सम्बन्धित कुछ दोहे इस प्रकार हैं--
"सूर्य नक्षत्र से गिनो, चउ छ नव दस आय। तेरा बीस नक्षत्र में, रवियोग समझाय ॥ प्रतिपद छठ पंचमी दसम, एकादसी तिथि होय। बुध मंगल शशि शुभ दिन, अश्विनी रोहिणी जोय ॥ पुनर्वसु मघा तथा, हस्तविशाखा सार। मूल श्रवण पू.-भाद्र में, कुमार योग विचार ॥ दूज तीज सप्तमी तथा, द्वादशी पूर्णिम जान । रवि मंगल बुध शुक्र में, भरणी मृगशिर मान । पुष्य पु. फा. चित्रा उ. बा. उ. भा. अनुराधा देख। धनिष्ठादि नक्षत्र में, राजयोग का लेख ॥ चौथ आठम चतुर्दशी, नौमि तेरस शनिवार। गुरु कृतिका आर्द्रा उ.फा. अश्लेषा सुविचार ॥ स्वाति उ. षा. ज्येष्ठा तथा शतभिषा संयोग।
रेवती नक्षत्रादि में, कहते हैं स्थिर योग॥" योग की स्थिति को मात्र सात दोहों में वणित करना एक कठिन काम है, किन्तु ज्ञानवर्द्धन की दृष्टि से इसे आम आदमी के लिए सुलभ किया है।
जन्म-पत्रिका में जो कुण्डलिका बनायी जाती है, उसमें १२ स्थानों पर नियमानुसार राशि-अंकों को स्थापित किया जाता है, ताकि तत्कालीन प्रवर्तमान ग्रहों को बिठाकर उनके फलादेश जाने जा सकें। व्यक्ति के जीवन में ये फलादेश मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं। श्रीमद् ने इस सन्दर्भ में कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं, जो इस प्रकार हैं--
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/८९
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