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ज्योतिर्विज्ञान के परिज्ञान के लिए जैनाचार्यों ने संस्कृत-प्राकृत में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। “दिनशुद्धिदीपिका", "भद्रबाहु संहिता”. “लग्नशुद्धि", "ज्योतिष हीर", "हीर कलश", "जैन ज्योतिष", "आरंभ-सिद्धि", "यन्त्रराज' आदि ग्रन्थ इस तथ्य के परिचायक हैं कि इस क्षेत्र में जैनाचार्यों का कितना अपूर्व योगदान रहा है ।
श्रीमद् भद्रबाह स्वामी-जैसे इस विज्ञान के परम ज्ञाता थे, जिन्होंने जन्मपत्रिका देखते ही राजकुमार की क्षणजीवी स्थिति की घोषणा कर दी थी। भारत के सांस्कृतिक इतिहास को देखने से पता चलता है कि ज्योतिर्विज्ञान एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान रहा है जिसे देश के विद्वानों ने निरन्तर आगे बढ़ाया है। इन समर्थ ज्योतिर्विज्ञानयों ने ग्रह-संचरण, प्रत्येक जीव के निजी जीवन, विभिन्न गतियों में मार्गी-वक्री के रूप में; सम, विषम या चर, स्थिर द्वि-स्वभाव की स्थिति में क्रूर, शान्त या सहवास जन्य स्वरूपता का समीचीन और स्पष्ट समीक्षण किया है।
श्रीमद्रराजेन्द्रसूरिजी का जीवन भी इस विज्ञान से अछूता नहीं रहा । उन्होंने मात्र इसे जाना ही नहीं इसका गहन अध्ययन-मनन भी किया। उन्होंने सदैव इसका एक सहज साधन के रूप में उपयोग किया।
विक्रम संवत् १९४५ में श्रीमद् राजनगर-अहमदाबाद में थे। वहाँ वाघणपोलस्थित श्री महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा का आयोजन था। श्रीमद् ने प्रतिष्ठा के मुहूर्त को सदोष बताते हुए कहा : “इस प्रतिष्ठा-मुहूर्त से प्रतिकूल स्थिति बनेगी। अग्नि-प्रकोप का योग प्रतीत होता है। इसे बदल कर कोई और कर लीजिये।" आग्रही व्यक्तियों ने श्रीमद् की सलाह मानने से इनकार कर दिया। अन्ततः भयंकर अग्निकाण्ड हुआ। इस तथ्य से राजेन्द्रसूरिजी के ज्योतिष-सम्बन्धी ज्ञान की पुष्टि होती है।
श्रीमद् का ज्योतिष के दोनों पक्षों पर अधिकार था। विक्रम संवत् १९५५ में जब आप प्रतिष्ठांजनशलाका सम्पन्न करवा रहे थे तब प्रतिपक्षी वर्ग भी अपने यहाँ उत्सव आयोजित करने के लिए तत्पर हुए। श्रीमद् ने सम्पूर्ण सद्भाव से उन्हें तथा प्रतिष्ठाकारक को समझाया कि “यह मुहूर्त उनके अनुकूल नहीं है। इसमें ग्रहगति और संगति विपरीत बैठती है।" किन्तु किसी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया और अपनी जिद पर अडिग रहे। अन्ततः जो दुष्परिणाम हुआ, वह सर्वविदित है। इस तरह श्रीमद् परामर्श देते थे, किसी को उसे मानने पर विवश नहीं करते थे।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के सम्बन्ध में अभी पूरी तरह अनुसंधान नहीं हुआ है। उनका धार्मिक साहित्य तो काफी उपलब्ध हुआ है, किन्तु वे महासमुद्र थे; उन्होंने कहाँ, कितना और किन-किन विषयों पर लिखा है इसकी प्रामाणिक जानकारी अभी अनुपलब्ध है। ज्यों-ज्यों उनकी रचनाएँ मिलती जाती हैं, कई तथ्य प्रकट होते
तीर्थंकर : जून १९७५/८८
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