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________________ सूरिजी को विश्वपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला एक तथ्य है उनकी क्रान्तिर्मिता। एक आत्मार्थी साधु होने के बावजूद भी सूरिजी किसी परम्परित धातु से बने नहीं थे। वे जिस धातु से बने थे, वह खरी और कालसह्य थी। उसमें खोट तो थी ही नहीं, वरन् किसी खोट पर या का यदि प्रहार हो तो उस युद्ध में टिके रहने का पराक्रम भी था। कथनी और करनी की एकता, जो उनके समकालीन भारतीय चरित्र में दिनोंदिन घट रही थी, सूरिजी के व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण अंश थी। उन्होंने जब यतिक्रान्ति के लिए अपनी 'नौ सूत्री' योजना घोषित की तो पहले अपने जीवन में उसे "संपूर्ण क्रियोद्धार” के रूप में लाग किया। उनका जीवन एक खुला ग्रन्थ था, वहाँ कोई तथ्य प्रच्छन्न नहीं था। जब वे स्वय पालखी से नीचे आ गये, तब उन्होंने अन्य यतियों से पालखी से उतर कर जीने की बात कही। उनकी क्रान्तिर्मिता कोरी बकवास नहीं थी, वह ठोस चारित्रिक थी। इसके अलावा या यों कहें इसके माध्यम से वे भारतीय चरित्र को सुदृढ़ करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपने साथी-यतियों अथवा संपृक्त श्रावकों को चारित्रिक पावनताओं और उज्ज्वलताओं को व्यवहार में लाने पर बल दिया। सूरिजी की क्रान्ति का सबसे जीवन्त पक्ष चरित्र है। धर्म के क्षेत्र में जिस चरित्ररचना पर सूरिजी ने बल दिया, नयी समाज-रचना के संदर्भ में उतना ही बल उनके समकालीनों ने भी दिया। सूरिजी ने उन यतियों को जो चारित्रिक सम्यक्त्व और औचित्य से स्खलित थे, स्थिरीकृत किया और आगामी क्रान्ति के लिए लोकमन और मस्तिष्क की रचना की। मन और मस्तिष्क की इस क्रान्ति के कुछ स्पष्ट खतरे और आशंकाएं थीं, किन्तु सूरिजी अभीत, अविचल और पराक्रमी व्यक्ति थे, वे एक दूरदृष्टित्व के साथ अपने रास्ते पर चलते गये और उन्हें सफलता मिली। दृढ़ता कई समस्याओं का समाधान है और चंचलता उलझनों और दुविधाओं की जननी। सूरिजी का चरित्र अचंचल, गहन और अडिग है, वे प्रतिक्षण अप्रमत्त और सावधान सन्त हैं। सुई की नोक तो बड़ा परिमाण है, वे कहीं भी चंचल नहीं हैं। गांभीर्य और 'जो कहना, वह करना उनके व्यक्तित्व के प्रधान अंश हैं। धर्म और समाज के हर मोर्चे पर सूरिजी की सफलता का कारण उनका लौह व्यक्तित्व ही है। सूरिजी के युग में अंग्रेजों के कारण कुछ ऐसी हवा बनी थी कि हमारा अतीत जड़, परम्परित, निष्प्राण और व्यर्थ है, उसमें कोई दम नहीं है, जो बाहर से आ रहा है, वह श्रेष्ठ है। इसलिए सूरिजी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भारतीय लोकजीवन में अतीत को, जो उखड़ने लगा था, पूनः प्रतिष्ठित किया और उसकी उज्ज्वलताओं को न केवल भारतीयों के समक्ष वरन् विदेशियों के समक्ष श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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