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को यति-जीवन की प्राण-धारा बनाया जा सकता है । कविवर प्रमोदरुचि के "विनति-पत्र" में राजेन्द्रसूरिजी के जीवन के जो साक्ष्य और विवरण मिलते हैं, उनसे उनकी साधना-प्रखरता का अनुमान मिलता है।
राजेन्द्रसूरि तपोधन तो थे ही स्वाध्यायानुरागी सन्त भी थे। वे चलते-फिरते तीर्थराज थे। जब “अभिधान-राजेन्द्र” का पहला अक्षर लिखा गया, वे तिरसठ वर्ष के थे। कहा जाता है साठ के ऊपर आदमी की सारी शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। वह जीने को जीता है, किन्तु उसका शरीर टूट जाता है, उसकी स्फूर्ति चुक जाती है, सम्पूर्ण प्राणवत्ता रीत जाती है; किन्तु राजेन्द्रसूरिजी के साथ यह कुछ अलग ही हुआ। ६३ का आँकड़ा उनके जीवन में शरीर और आत्मा की शक्तियों की अमोघ मैत्री का वर्ष सिद्ध हुआ। उन्होंने अपार श्रम आरंभ किया। १८९० ई. में उन्होंने विश्व-विश्रुत कोश “अभिधान-राजेन्द्र" के सम्पादन-संकलन का सूत्रपात किया। इस समय वे सियाणा में वर्षावास सम्पन्न कर रहे थे। यह एक विशाल कार्य था, एक व्यक्ति की सीमा से परे; किन्तु प्राची पर सूर्य को जन्म देने का जो दायित्व है, ठीक वैसा दायित्व संभाला राजेन्द्रसूरिजी ने। उन्होंने विश्व-संस्कृति में ज्ञान-सूर्योदय का दायित्व ओढ़ा। जैन-जैनेतर सभी ज्ञान-स्रोतों का महामन्थन आरम्भ हुआ। लगभग ९७ स्रोत दुहे गये। उन्हें व्यवस्थित किया गया, और कोशीय अनुशासन के अनुसार सारे आकलित न्यास का परीक्षण किया गया। अपने यति-मण्डल के सहयोग से उन्होंने एक विश्व-कोश की योजना तैयार की। अकारादि-क्रम से ६०,००० शब्द संयोजित किये गये । उनकी शब्द-व्याख्याओं को आयोजित किया गया।
जब राजेन्द्रसूरिजी अपनी इस योजना को आकार देने में लगे थे तब लग रहा था जैसे कोई शिल्पी श्रमणबेलगोला की बाहबली प्रतिमा के मूल-प्रस्तर खण्ड पर छैनी चला रहा है। "अभिधान-राजेन्द्र” और “बाहुबली प्रतिमा” दोनों ही विश्व-विश्रुत विशाल रचना-कौशल हैं । श्रीमद राजेन्द्रसूरि ने जैनविद्या के समस्त स्रोतों का अनुसंधान किया था। शब्दों से जो ‘डायलॉग' शताब्दियों के सघन अन्धकार के कारण टूट गया था, राजेन्द्रसूरिजी ने उसे पुनः स्थापित किया। उन्होंने शब्दों से घंटों प्रत्यक्ष-परोक्ष बहसें की। उनके व्यक्तित्व को परखा-पहचाना, उन पर लिपटी संस्कृतियों का समीक्षण और पारदर्शन किया। उन्होंने प्रायः सभी शब्दों को उनकी निर्ग्रन्थता में देखा और किसी सन्दर्भ को हाथ से छूटने नहीं दिया। शब्दयोगी की इस दिगम्बर शब्द-साधना की झलक हमें मिलती है, उनके देहावसान के उपरान्त प्रकाशित सात खण्डों वाली उस भव्य इमारत में जिसे "अभिधान-राजेन्द्र" कहा गया। लगता है जैसे यह वह 'नन्द्यावर्त' ही है जिसमें भगवान महावीर कभी रहे और जहाँ से उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया । “अभिधान
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/८५
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