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राजेन्द्र” एक ऐसा सन्दर्भ ग्रन्थ है जिसमें श्रमण-संस्कृति का शायद ही कोई शब्दसन्दर्भ छूटा हो। शब्दमूल तो वहाँ हैं ही, शब्द-विाकस भी दिया गया है । एक-एक शब्द को उसके तत्कालीन प्रचलन तक उघाड़ा गया है। यह काम विशाल था, एक व्यक्ति के बूते का नहीं था, फिर भी शब्दर्षि राजेन्द्रसूरिजी ने उसे पूरी सफलतापूर्वक सम्पन्न किया। इससे जैन संस्कृति तो अक्षय्य हुई ही, भारतीय संस्कृति भी अमर हुई।
सियाणा में जिस विश्वकोश के संपादन का आरंभ हुआ था, १९०३ ई. में सूरत में उसका सफलता-पूर्वक समापन हुआ। पूरे चौदह वर्ष इस महान कार्य में लगे । 'पाइय सइंबुहि"(प्राकृतशब्दाम्बुधि) “अभिधान-राजेन्द्र" का ही एक लघु संस्करण है। इसकी रचना १८९९ ई. में हुई। यह आज भी अप्रकाशित है, और संपादन-प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहा है।
चीरोलावासियों को एकता के अटूट सूत्र में बाँधने के बाद ही श्रीमद् को लगा जैसे उनकी जीवन-यात्रा पर अब पूर्णविराम लगना चाहता है। बड़नगर में उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, और उन्हें ऐसा अनुभव हुआ जैसे सूर्य ने अस्ताचल का पहला शिखर छू लिया है । वे दूरदृष्टा तो थे ही अतः उन्होंने राजगढ़ पहुँच कर अनशन का संकल्प कर लिया और अपने अन्तेवासियों को अपने निकट आमन्त्रित कर कहा :"श्रमण संस्कृति की मशाल कभी बुझने न पाये, इसे अकम्प बनाये रखो, इस कोश को प्रकाश में लाओ।"
इसके बाद एक सूर्य जिसे भरतपुर की प्राची ने जन्म दिया था, राजगढ़ की प्रतीची में डूब गया । श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में उनके समाधि-स्थल से आज भी उनके संदेश की प्रतिध्वनियाँ अनुगुंजित हैं।
किसी बात पर केवल तब विश्वास करो “सुनी हुई बात, पर विश्वास न करो, परम्पराओं में विश्वास न करो क्योंकि वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आयी हैं, किसी बात पर इसलिए विश्वास न करो कि वह जनश्रुति है और बहुत लोग उसे कह रहे हैं। किसी बात में केवल इसलिए विश्वास न कर लो कि किसी प्राचीन ऋषि का लिखित वक्तव्य प्रस्तुत किया गया है। खयाली बातों में विश्वास न करो, किसी बात पर केवल इसलिए विश्वास न कर लो कि उसे तुम्हारे शिक्षकों और अग्रजों ने कहा है । किसी बात पर केवल तब विश्वास करो जब तुम उसे जांच-परख लो और उसका विश्लेषण कर लो, जब यह देख लो कि वह तर्कसंगत है, तुम्हें नेकी के रास्ते पर लगाती है और सबके लिए लाभदायक है, तब तुम उसके अनुसार ही आचरण करो।"
-अंगुत्तर निकाय ; १, १८९-९०
तीर्थकर : जून १९७५/८६
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