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तमतमा उठे। उन्होंने सूरिजी से स्पष्ट को मौका न की किसी श्रमण को कोई आवश्यता नहीं है। उसके पास पहवाहीजल कम हैं। एक अप्रमत्त सधिकर के पास श्रुताध्ययन और साधना का प्रावी इतना अधिक होता है कि यह इन्द्रियों की किसी दासता में फंसे इसके लिए कोई अवकाश मिल पाये।” सारे कक्ष में सन्नाटा छा गया। धरणेन्द्रसूरिजी के लिए यह एक अनहोनी थी। उनका रोम-रोम काँप उठा। उन्हें दफ्तरी के वाक्य उद्बोधन की अपेक्षा तिरस्कार जैसे लगे। वे बोले : “दफ्तरीजी, हम आपका हमेशा बहुमान करते आये हैं, किन्तु सबके सामने आप हमें इस तरह अपमानित करेंगे यह हमने सोचा भी न था । मैंने ही आपको यह पद दिया है। कई योग्य यति इस पर आँख लगाये हुए हैं।" रत्नविजयजी तो इस क्षण की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। वे बिजली की तरह कक्ष से बाहर आ गये। दूसरे दिन सुबह ही वे घाणेराव से अपने कुछ यति-साथियों के साथ आहोर की ओर चले गये। आहोर में उन्होंने प्रमोदसूरिजी से सारी स्थिति पर सलाह-मशविरा किया और यहीं से यति-क्रान्ति का शिलान्यास हुआ। प्रमोदसूरिजी ने रत्नविजयजी को "श्रीपूज्य” की उपाधि से अलंकृत किया और इस तरह अब वे सम्पूर्ण साधु हो गये। तदनन्तर विहार करते हुए वे अपने यतिसमुदाय के साथ जावरा आये और वहीं उन्होंने वर्षावास का संकल्प किया।
इसी बीच श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि का माथा ठनका। उन्हें लगा कि तीर्थंकरों की परम्परा अपरिग्रह की है। यतिवर्ग घोर परिग्रही है । रत्नविजयजी, जो अब राजेन्द्रसूरिजी हो गये थे, ने ठीक कहा था। यतियों को श्रमण संस्कृति का सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि बनना चाहिये। वे धर्म-ध्वज हैं, उनसे धर्म जाना जाता है। यदि बागड़ ही खेत खाने लगेगी तो फिर खेती की रक्षा कैसे होगी? इस तरह उनके मन में राजन्द्रसूरिजी के प्रति आदर और सम्मान के भाव का पुनरावर्तन हुआ। उन्हें लगा जैसे चन्दन-वृक्ष के समीप रह कर भी वे सुवासित नहीं हो सके, घर आयी गंगा में अवगाहन का पुनीत अवसर उनके हाथ से निकल गया। अतः उन्होंने यतिश्री सिद्धकुशलजी और श्री मोतीविजयजी को जावरा भेजा। दोनों यतियों ने राजेन्द्रसूरिजी से खुलकर चर्चाएं कीं और सारी स्थिति की एक निष्पक्ष समीक्षा सम्भव हुई। राजेन्द्रसूरिजी तो अपने संकल्प पर सुमेरु की भाँति अविचल थे। वे यति-संस्था को आमूल बदल डालना चाहते थे, अत: परिस्थितियों के परीक्षण और वस्तुनिष्ठ समीक्षण के बाद उन्होंने एक 'नौ सूत्री' योजना तैयार की। इसमें यति-जीवन को श्रमण संस्कृति के अनुरूप ढालने के नौ उपाय थे । इसे यति-संस्था का 'मेनीफेस्टो' या क्रान्ति-पत्र कहा जा सकता है। इन नौ कलमों में राजेन्द्रसूरिजी ने तत्कालीन यति-जीवन का समीक्षण तो किया ही था, यति “क्या करें और क्या न करें" इसके स्पष्ट निर्देश भी दिये थे। इस "क्रान्ति-पत्र” के माध्यम से उन्होंने यति-जीवन का सरलीकरण और नवीनीकरण किया। घाणेराव से आये
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक ८३
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