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________________ और लालसाओं के कारण यति बनते थे किन्तु रत्नराज ने एक लक्ष्य-सिद्धि के लिए दीक्षा ली थी। इस क्षेत्र में आने का उनका एक स्पष्ट उद्देश्य था। वे संसार से मुक्त होना चाहते थे, पलायन उनका लक्ष्य नहीं था। उन्होंने अनुभव किया था कि श्रमण-संस्कृति को ख-ग्रास ग्रहण लग गया है। वे इससे उसे मुक्त करना चाहते थे। आरम्भ में उन्हें लगा था कि चुनी हुई डगर कंटीली है, विघ्नों से भरी हुई है; किन्तु उनकी लगन, निष्ठा और कार्य-कुशलता ने व्यवधानों पर विजय पायी और वे सफल हुए। “दफ्तरी" के रूप में काम करते हए भी उनका यति निरन्तर अप्रमत्त, निष्काम और निरहंकार बना रहा। उनकी चर्या बहत स्पष्ट और निर्विवाद थी; काम से काम, अध्ययन, यतियों को अभ्यास, और साधना। ___एक दिन की घटना है। पर्युषण का कोई प्रवचन समाप्त हुआ था। रत्न विजयजी श्रीपूज्य से मिलने आये थे। प्रवचन प्रभावशाली हआ था। उसमें अपरिग्रह की सार्थकता और उपयोगिता पर विचार किया गया था। रत्नविजयजी का मन कथनी-करनी के विरोधाभास से एक नयी गर्माहट महसूस कर रहा था। उनके चित्त पर अपरिग्रह की शास्त्रीय परिभाषाएँ और यतियों के जीवन में उनकी नृत्य-लीला दोनों चढ़े हुए थे। वहाँ यति-जीवन का एक और ही आयाम करवट ले रहा था। इस तरह अपने अवचेतन मन पर क्रान्ति की एक अपरिभाषित लहर लिये व श्रीपूज्य के कक्ष में दाखिल हुए। कक्ष अभिजात उपकरणों से सजा था। सूरिजी पोढ़े थे। उनके केश लम्बे थे, सँवरे थे और सारा कक्ष सुरभियों में गमक रहा था। वे ढाका की मलमल ओढ़े थे । वासक्षेपों की सुगन्ध से कहीं अधिक तीखी सुगन्ध घ्राण -रन्ध्रों को छू रही थी। इस तरह एक अपरिग्रही के कक्ष में परिग्रह का नंगा नाच हो रहा था। रत्नविजयजी ने पाया कि श्रमण संस्कृति की मूल प्राणधारा से कक्ष की सजावट और सुरभियों की गमक की कोई संगति नहीं है। यतियों को सबके साथ निष्कपट व्यवहार करना चाहिये । 'क्या हम भगवान महावीर की जय के साथ इतना भारी परिग्रह रख सकते हैं ? क्या इन्द्रियों को जीतने वाले उन महान् तीर्थंकरों की परम्परा में हमें इन्द्रियों की इस दासता में एक पल भी साँस लेने का अधिकार है ? यह एक क्रूर मजाक है, श्रमण संस्कृति की निर्मल परम्पराओं के साथ ।' उनके मन में यह द्वन्द्व आकार ले ही रहा था कि धरणेन्द्रसूरिजी ने कहा : "आओ रत्नविजयजी, ये श्रावकजी हमारे लिए नया इत्र लाये हैं, इसे आप ग्रहण करें।" रत्नविजयजी का रोआँ-रोआँ झनझना उठा। वे सोचने लगे इत्र और श्रमण, कहाँ वह त्याग और कहाँ यह ओछा ग्रहण; कहां तीर्थंकरों की वे दुर्द्धर तपश्चर्याएँ और कहाँ यह “इत्र", कहाँ नीलांजना का नत्य और तज्जन्य वैराग्य और कहाँ यह कक्ष और यह इत्र; कहाँ भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान महावीर पर हुए उपसर्ग और कहाँ यह इन। वे विद्रोह में तीर्थकर : जून १९७५/८२ Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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