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________________ यह एक ऐसा समय था कि जब हिन्दुस्तान आजादी की लड़ाई के लिए कमर कस रहा था और रत्नराज रत्नविजयजी के रूप में एक अलग ही स्वाधीनतासंग्राम की योजना कर रहे थे। स्वाधीनता-युद्ध दोनों थे; रत्नविजय आध्यात्मिक स्वाधीनता की लड़ाई जूझना चाहते थे, और भारत को राजनैतिक पराधीनता के लिए फिरंगियों से जाना था; एक दुश्मन भीतर था, एक बाहर। रत्नराज यति हुए तन-मन से, ऐसे जमाने में जब तन के जती तो सैकड़ों थे, मन के इक्केदुक्के कोई थे। जैन यतियों का उन दिनों का जीवन भोग-विलास में डूबा हुआ था। वे सामन्ती ठाठ से रहते थे, सीमाहीन परिग्रह रखते थे, बेहिसाब दौलत, बेइन्तहा साधन-सुविधाएँ। ऐसे विषम समय में जब लोग जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में "अशुद्ध साधनों से, शुद्ध साध्य" को हासिल करने का ढोंग कर रहे थे, रत्नविजयजी ने साध्य-साधन-शुचिता का पूरे बल से उद्घोष किया। उन्होंने कहा “साध्य यदि शुद्ध है और प्राप्य है, तो उसे निष्कलंक साधनों से और निष्काम भाव से ही प्राप्त करना चाहिये, अशुद्ध साधनों से शुद्ध साध्य प्राप्त हो ही नहीं सकता; आरम्भ में साधक को भले ही लगे कि उसने अपना लक्ष्य पा लिया है, किन्तु जल्दी ही उसकी भ्रान्ति टूट जाती है। इसलिए “साध्य शुद्ध, साधन शुद्ध" का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिये।” (यह गांधीजी के जन्म का वर्ष था जब रत्नविजयजी ने यति-क्रान्ति के सन्दर्भ में “साधन-साध्य-शुचिता" के सिद्धान्त को अपनी करनी में प्रकट किया।) इस तरह उन्होंने धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में क्रान्ति की एक विमल पीठिका की रचना की। १८४९ ई. में उन्होंने अपना चातुर्मास उज्जैन में सम्पन्न किया। अवन्तिका उनके लिए ज्ञानतीर्थ सिद्ध हुई। यहाँ उन्हें खरतरगच्छीय श्रीसागरचन्द्रजी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यति सागरचन्द्रजी प्रज्ञा-पुरुष थे। उनसे रत्नविजयजी ने व्याकरण, काव्यांग, न्याय, कोश, अलंकार, रस, छन्द इत्यादि का अध्ययन किया। आगे चलकर १८५२ ई. में उन्होंने बड़ी दीक्षा ली और अब वे “पंन्यास' कहे जाने लगे। १८६४ में उनकी कार्यकुशलता, निष्ठा, लगन, अध्ययनशीलता, साधना और विद्वत्ता को देख कर श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी ने उन्हें अपना “दफ्तरी" नियुक्त किया। “दफ्तर" मुगलिया शब्द है, जिसका अर्थ है “कार्यालय, ऑफिस”। यतियों का कारोबार बढ़ा हुआ था। उन्हें दफ्तर रखना होता था, रिकार्ड रखने होते थे; यह काम कठिन और उलझनपूर्ण था। इसे कोई कार्यकुशल व्यक्ति ही कर सकता था। रत्नविजयजी की याददाश्त प्रखर थी. वे मधुमक्खी की तरह काम करते थे और अपने साथी यतियों को पढ़ाते थे। दफ्तरी की जिम्मेवारी के साथ वे एक अध्यापक की जिम्मेवारी भी बराबर निभा रहे थे। अधिकांश लोग कई प्रलोभनों श्रीमद राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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