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________________ यदि हम काव्य का आश्रय लें तो कहेंगे कि श्रीमद् का सम्पूर्ण जीवन दशकालिक का एक जीवन्त दस्तावेजी चलचित्र था । उनके जीवन में शैथिल्य और प्रमाद, चंचलता और अपरिपक्वता का कोई स्थान नहीं था । मुनिचर्या का कठोर - निर्मम अनुपालन, दुर्द्धर तप और जिनवाणी का अध्ययन उनके जीवन का समुज्ज्वल त्रिभुज था । इसके कई उदाहरण हमें मिलते हैं । लिखने-पढ़ने का काम वे सूर्यास्त के पहले ही समाप्त कर लिया करते थे । अहिंसा व्रत का वे इतना सूक्ष्म पालन करते थे कि लेखनोपकरण के रूप में नारियल के खप्पर में स्याही में तर कपड़ा रखते थे, जिसे सूर्यास्त से पूर्व सूखने डाल देते थे और सूर्योदय पर भिगो लेते थे। रात को कभी उन्होंने लिखा-पढ़ा हो, इसकी कहीं कोई सूचना नहीं है । आज वह परम्परा नहीं है। इतना होते हुए भी वे हमें जो दे गये हैं वह चौबीसों घण्टे लगातार कार्यनिरत रहने वाले व्यक्ति द्वारा भी सम्भव नहीं है । वस्तुतः वे संस्था-पुंज थे, व्यक्ति थे ही नहीं; उन्होंने जो कार्य किये हैं, उनसे इतिहास बना है, मानवता का ललाट अलंकृत हुआ है । सांस्कारिक क्रान्ति की भाँति ही उनकी सामाजिक क्रान्ति है । उसके भी विविध आयाम हैं । जैसा बहुआयामी उनका व्यक्तित्व है, वैसी ही बहुआयामी उनकी क्रान्ति है । इस क्षेत्र में उन्होंने निर्वैर, मैत्री, सामाजिक वात्सल्य और समन्वय की वृत्ति के प्रसार से काम लिया । चीरोला का उदाहरण उनकी समन्वयी चेतना का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। जो बैर दशकों से चला आ रहा था, उन्होंने कुछ ही क्षणों में उसे समाप्त कर दिया। विभिन्न प्रतिष्ठाओं और अंजन-शलाका-समारोहों का संयोजन भी सामाजिक सन्तुलन बनाने की पहल के अन्तर्गत आता है । समारोहों में लोग दूर-दूर से आते हैं, एक-दूसरे की सहायता करते हैं, सामुदायिक जीवन जीते हैं और स्वाध्याय-प्रवचन द्वारा एक-दूसरे के विचारों को समझते - समझाते हैं। इससे उदारता, सहिष्णुता, स्नेह, समन्वय और धीरज जैसे चारित्रिक गुणों का विकास होता है और सामाजिक कार्यों के लिए एक नवभूमिका बनती है । श्रीमद् रूढ़ या परम्परित विचारधारा के नहीं थे किन्तु जैनों में जो सामाजिक पार्थक्य उत्पन्न हो गया था उसे वे स्नेह - सौहार्द्र में परिवर्तित करना चाहते थे । वे अपने संकल्प को साकार करने में सफल हुए । उनके द्वारा हुई प्राण-प्रतिष्ठाएँ तथा अन्य समारोह कोरे धार्मिक आयोजन नहीं हैं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से उनका बड़ा महत्त्व है । इन समारोहों की सर्वोत्तम फलश्रुति तो यह है कि जो सम्पदा सञ्चित पड़ी थी उसका सदुपयोग हुआ और वर्षों से चली आ रही कई सामाजिक शत्रुताएँ समाप्त हो गयीं । साहित्यिक दृष्टि से उन्होंने क्या किया और क्या नहीं, इसका अभी तक कोई व्यवस्थित और वस्तुपरक अध्ययन नहीं हो पाया है । इस नज़र से उनकी श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / ७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
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