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नैतिक दृष्टि से भी राजेन्द्रसूरिजी ने समाज में एक भारी परिवर्तन किया। सम्यक्त्व की ओर चूंकि उनका ध्यान सबसे अधिक था, अत: उन्होंने श्रावक और श्रमण दोनों संस्थाओं के सम्यक्त्व में स्थितिकरण के प्रयत्न किये। श्रीमद् विरचित स्तुतियों, पदों और स्तोत्रों में सम्यक्त्व की चर्चा-समीक्षा स्पष्टतः देखी जा सकती है। श्रीमद् ने जिन स्तोत्रों और स्तुतियों की रचना की है वे रूढ़ नहीं हैं; उनकी अन्तरात्मा में जैनत्व धड़क रहा है। प्रशंसात्मकता और गरिमा-विवरण के साथ इनमें से जीवन-सन्देश भी सुना जा सकता है। श्रीमद् की नैतिक क्रान्ति का आधार ये स्तोत्र-स्तुतियाँ और पद भी हैं। "कल्पसूत्र" की बालावबोध टीका में कई स्थानों पर श्रीमद् ने नैतिक मूल्यों की चर्चा की है। कथा के साथ नीति-चर्चा श्रीगद् के व्यक्तित्व की विशेषता है। “कल्पसूत्र” की इस टीका में उन्होंने एक स्थल पर यह स्पष्ट कहा है कि "हम जितना व्यय व्यर्थ की सामग्रियों को इकट्ठा करने और प्रीतिभोजों में करते हैं, उतना यदि ग्रन्थागारों को समृद्ध बनाने में करें तो बड़ा काम हो सकता है। ज्ञानदान सब दानों में सिरमौर है। हमें कौटुम्बिक ग्रन्थागार भी बनाने चाहिये । हर परिवार का अपना धर्म-ग्रन्थालय हो, जिसमें चुने हुए ग्रन्थ हों; जिस तरह हम चुने हुए कपड़े, चुने हुए आभूषण और चुने हुए खाद्य रखते हैं; चुने हुए शास्त्र क्यों नहीं रखते ?” इस तरह उन्होंने नीति के क्षेत्र में अपने समकालीन सामाजिकों की ज्ञान-पिपासा को जगाया और साधु तथा गहस्थ दोनों को स्वाध्याय में प्रवृत्त किया। उनकी 'नवकलमें' जिन्हें क्रान्ति का शिलालेख माना जाता है, श्रीमद् की क्रान्ति-कथा का नभभेदी उद्घोष करती हैं।
सांस्कारिक क्रान्ति की दृष्टि से भी श्रीमदराजेन्द्रसूरि के क्रान्तिकारी विचारों का महत्त्व है। उन्होंने श्रुत-विनय पर विशेष ध्यान दिया। विनय उनकी ज्ञानोपासना का प्रधान अंग था। ग्रन्थों को हम किस तरह रखें, किस तरह उन्हें वाचन के लिए स्थापित करें, दूसरों के लिए हम निरहंकार भाव से किस तरह वितरित करें, इत्यादि कई आवश्यक पक्षों का उन्होंने बड़ा स्पष्ट वर्णन किया है। "कल्पसूत्र" की बालावबोध टीका है लघुकाय किन्तु इस दृष्टि से उसमें कई ध्यातव्य बातें कही गयी हैं। श्रीमद् के अनुसार 'शास्त्र कल्पवृक्ष हैं, हमें स्वाध्याय से उनका सिंचन करना चाहिये। विनय जीवन का बहुत बड़ा संस्कारक तत्त्व है. नयी पीढ़ियों में इसका समुचित और सन्तुलित विस्तार होना चाहिये।' शास्त्र-विनय, चैत्य-विनय, स्वाध्याय, परस्पर स्नेह और वात्सल्य, सप्तव्यसनों का त्याग इत्यादि अनेक संस्कारों पर जो व्यक्ति को भीतर से माँजते थे, श्रीमद् का बराबर ध्यान था । वे प्रवचनों में और अपने नित्य जीवन में इनकी चर्चा करते थे और व्यवहार में लाते थे। पूरी उज्ज्वलता और नैतिक कसावट में बिताया गया उनका जीवन उनके प्रवचनों का, उनके कठोर व्यक्तित्व का प्रतिनिधि है।
तीर्थंकर : जून १९७५/७४
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