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पहला काम यह किया कि लोग आधुनिक मन से लैस होकर अतीत में वापस हों और पुरखों की ज्ञान-गरिमा को उदारता से विश्व के सम्मुख रखें। "अभिधानराजेन्द्र' उनकी इसी भावना का प्रतीक है।
श्रीमद् की क्रान्ति-कामना के कई पहलू थे। वे चाहते थे धर्म, नीति, संस्कार, समाज, साहित्य, भाषा, शिक्षा, व्यक्ति सबको उनकी सम्पूर्ण क्रान्ति छुए; यही कारण था कि उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, जबकि आवागमन और संचार के साधनों का आज जैसा विकास और विस्तार नहीं हुआ था, और कई तरह के परिवर्तन आकार ग्रहण कर रहे थे, पूरी ताकत से सारी बाधाओं को सहा और चुनौतियों को धैर्य से झेला। वे अपने संकल्प पर अविचल रहे। दृढता और सत्यनिष्ठा श्रीमद् के चरित्र के विशेष सन्दर्भ हैं।
धर्म के क्षेत्र में उनकी क्रान्ति ने कई आकार लिये। सामान्य श्रमण और श्रावक के आचार को उसने प्रभावित किया। कथनी और करनी की जो एकता दोनों में टूट-घट गयी थी, उनके प्रयत्नों से वह पुनः लौटी। स्वाध्याय और सम्यक्त्व की ओर श्रमण और श्रावक-शक्तियों ने पदार्पण किया। यति-संस्था का कायाकल्प तो हुआ ही उसके माध्यम से श्रावकों की मनःस्थिति भी बदली। वे स्पष्ट जानने लगे कि कौन श्रमण मान्य है, कौन अमान्य । सामाजिकों और साधुओं के बीच जो तालमेल और समन्वय छिन्न-भिन्न हो गया था, विकृत हो गया था, श्रीमद् ने उसकी पुनर्रचना को और साधई जीवन की मानसिक कुण्ठाओं का सम्यक् निरास किया, उन्हें कल्याणोन्मुख किया। इस तरह श्रमण और श्रावक के मध्य टूटती कड़ी महावीर के बाद फिर, एक सीमित क्षेत्र में ही सही, जुड़ी। वस्तुतः यह एक ऐसी क्रान्ति थी जिसने साधुई जीवन को अप्रमत्त, अपरिग्रही, सस्फूर्त, रचनात्मक और सक्रिय बनाया। इसी सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि श्रीमद् ने कई जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया, उन्हें सरकारी कब्जों से मुक्त किया और प्रतिष्ठित किया। जालौर दुर्ग के मन्दिर के लिए उन्होंने आठ महीने सत्याग्रह किया। भारत में, धार्मिक क्षेत्र में ही सही, किन्तु सत्याग्रह की यह पहली शुरूआत थी। सामन्तों को उनकी निष्ठा के आगे झुकना पड़ा। जिन मन्दिरों का शस्त्रागारों की भाँति उपयोग हो रहा था, उनका ग्रन्थागारों के रूप में उपयोग होने लगा। लोगों में साहस उत्पन्न करना और अन्याय तथा जुल्म के खिलाफ क्रान्ति की भावना खड़ी करना कोई मामूली काम नहीं था। यह उन्होंने किया। मन्दिर, आप चाहे जो कहें, सामाजिक परामर्श के बहुत बड़े केन्द्र हैं। हम इन्हें सामाजिक वात्सल्य की मातृ-संस्थाएँ कह सकते हैं, जहाँ आदमी विनयपूर्वक आता है, स्वाध्याय करता है
और सामाजिक स्नेह का संवर्द्धन करता है। श्रीमद् ने सैकड़ों मन्दिरों को प्रतिष्ठित किया और उन्हें ज्ञान तथा साधना का केन्द्र बनाया।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/७३
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