________________
टकराने लगी थीं। अंग्रेजी ने अंग्रेजों के हितों को पुख्ता किया जरूर ; किन्तु देशवासियों को क्रान्ति के प्रबुद्ध आधार भी उपलब्ध किये । उदाहरणतः भारत में रेल की पाँतें १८५३ ई. में डाली गयीं। उसी वर्ष मार्क्स ने टिप्पणी की : “मैं जानता हूँ कि अंग्रेज मिलशाह केवल इस उद्देश्य को सामने रखकर भारत में रेलें बनवा रहे हैं कि उनके जरिये अपने कारखानों के लिए कम खर्च में अधिक कपास और कच्चा माल वे हासिल कर सकें; किन्तु एक बार जब आप किसी देश के--एक ऐसे देश के जिसमें लोहा और कोयला मिलता है-- आवागमन के साधनों में मशीनों का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं, तो फिर उस देश को मशीन बनाने से आप नहीं रोक सकते। यह नहीं हो सकता कि एक विशाल देश में रेलों का एक जाल आप बिछाये रहें और उन औद्योगिक प्रक्रियाओं को आप वहाँ आरम्भ न होने दें, जो रेल-यातायात की तात्कालिक, और रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हैं। (“न्यूयार्क ट्रिब्यून", ८ अगस्त, १८५३) । आधुनिकता की इस गोद में राजेन्द्रसूरि की क्रान्ति ने जन्म लिया। एक तरह से हम कह सकते हैं कि जैन साधुओं में आधुनिकीकरण की जिस प्रक्रिया का आरम्भ होना था, उसकी एक उपक्रिया श्रीमद् के नेतृत्व में आरम्भ हुई। श्रीमद् के विचार परम्परित होते हुए भी आधुनिक थे । वे १९ वीं शताब्दी की हलचल से परिचित थे। यह सम्भव ही नहीं है कि कोई व्यक्ति अपने युग में होने वाली घटनाओं से अपरिचित रहे और उसके क्रिया-कलाप पर उस युग की कोई परछाईं न पड़े।
जहाँ एक ओर, श्रीमद् के युग में, एक उदार चेतना पूरे बल से हिन्दुस्तान की जमीन पर पाँव जमा रही थी, दूसरी ओर हिन्दुस्तान की प्रायः सभी कौमें और सामाजिक वर्ग अन्धविश्वासों और कुरीतियों की व्यर्थताओं को समझने लगे थे। इस सांस्कृतिक व्यथा को श्रीमद् तथा उनके समकालीनों ने पूरी सहृदयता से समझा और चाहा कि कोई ऐसा परिवर्तन हो जिससे लोग अपने अतीत के गौरव को तो विस्मृत न करें किन्तु आने वाले परिवर्तन और उसके सन्दर्भो से भी अपरिचित न रह जाएँ, उनका वे पूरा-पूरा लाभ उठायें, इसलिए उन्होंने भारतीय संस्कृति के पुनरुज्जीवन के लिए आधुनिक साधनों के उपयोग की अपरिहार्यता को अस्वीकार नहीं किया। धार्मिक ग्रन्थों को मुद्रण की प्रक्रिया में डालना एक ऐसी ही क्रान्ति थी। आज से नौ दशक पूर्व, जब हिंसा-अहिंसा की बहस अधिक औपचारिक और स्थूल थी, किसी जैन ग्रन्थ का छपाई में जाना एक मामूली घटना नहीं थी। जहाँ इस घटना का लोग विरोध कर सकते थे, वहीं दूसरी ओर सैकड़ों जैन ग्रन्थागार अरक्षित पड़े थे। जैनागम तो उद्धार के क्षणों की प्रतीक्षा कर ही रहा था, अन्य आगमों की भी लगभग यही स्थिति थी। इस दृष्टि से श्रीमद् ने
तीर्थकर : जून १९५/७२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org