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श्रीमद्राजेन्द्रसूरि की क्रान्ति के विविध पक्ष
उन्होंने यति-संस्था का कायाकल्प तो किया ही साथ ही उस माध्यम से श्रावकों की मनःस्थिति को भी बदला अर्थात् उन्हें स्पष्ट बताया कि उनके लिए कौन पूज्य है, कौन अपूज्य । सामाजिकों और साधुओं के बीच जो तालमेल टूट गया या विकृत हो गया था श्रीमद् ने उसे पुनः परिभाषित किया और साधु-जीवन की मानसिक कुण्ठाओं का स्वस्थ निरसन किया यह एक ऐसी क्रान्ति थी, जिसने साधुई जीवन को अप्रमत्त, सस्फूर्त, रचनात्मक और कल्याणकारी बनाया तथा श्रावक और श्रमण के बीच टूटती कड़ी में फिर से प्राण फूँके ।
'प्रलंयकर'
श्रीमद् राजेन्द्रसूरि एक सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न प्रज्ञा - पुरुष थे । उन्होंने उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपनी साधना का आरम्भ किया । उनकी अनन्य सहिष्णुता और असीम धीरज का ही यह फल था कि वे जन-जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में अपेक्षित परिवर्तन ला सके और लोगों में परिवर्तित सन्दर्भों से समरस होने की क्षमता पैदा कर सके। जब हम राजेन्द्रसूरिजी के जीवन पर एक सरसरी नजर डालते हैं तो देखते हैं कि उन्होंने अपने समकालीन जीवन को कई तरह से मथने-परखने की कोशिश की । उन्होंने हर क्षेत्र की हर बुराई को चुनौती दी । प्रमाद और शिथिलाचार उन्हें बिलकुल पसन्द न था । मधुमक्खी की तरह काम में लगे रहना और सूरज की तरह का रोशनी से नहाया जीवन जीना उनका स्वभाव था । न एक क्षण विश्राम, न एक क्षण प्रमाद; अनवरत चलते रहना उनकी साधना का सबमें सबल पक्ष था । व्यक्ति से लेकर समूह तक को बदल डालने का उनका अभियान सामान्य नहीं था, वह एक ऐतिहासिक कार्य था जिसे करने में उन्होंने अपनी सारी शक्तियों को होम दिया ।
उनका जमाना भारी उथल-पुथल का जमाना था। मुगल करीब-करीब परास्त हो चुके थे, और अंग्रेज अपने झण्डे गाढ़ रहे थे । भारतीय क्षितिज पर सुधारवादी कादम्बिनी छायी हुई थी। एक अच्छा शकुन था । लोग निराशा में भी क्रान्तिघोष कर रहे थे। हार कर भी उनका मनोबल एकदम गिरा नहीं था । रेलों का जाल बिछ रहा था, और गाँवों को शहरों तथा बन्दरगाहों से जोड़ा जा रहा था । अंग्रेज अपनी दिलचस्पियों के कारण यूरोपीय क्रान्ति की कलम हिन्दुस्तान में लगा रहे थे । शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्रों में हिन्दुस्तानी और अंग्रेजी भाषाएँ
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श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक ७१
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