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नो तथा समुद्रनो अने वांदराऊनो प्रताप जाणवो नही परंतु ते प्रताप श्रीरामचन्द्रजीनो जाणवो केमके पत्थरनो तो एवो स्वभाव छ जे पोते पण बूडे अने आश्रय लेना रनें
_क. सू. बा. टी. चित्र ४
शब्यापक
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विशनरंय. वजाबना
विट वासुदेव
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'एक दिवस नाटक थातुं हतुं तेवामां राजावें निद्रा आवना लागी तेवारें शय्यापालकनें कहयु के मने निद्रा आवी जाय तेवारे ए नाटक करनाउने शीख आपी वारी राखजो तो पण ते शय्यापालके श्रीत्रंद्रियना रसे करी तेमनें गीत गान करतां वारी राख्या नही एटलामां त्रिपृष्ठ जागृत थइने बोल्यो के अरे आ नाटकी आने शा वास्तं रजा आपी नही तेवारें शय्यापालक कह यु के 'हे प्रभु ! श्रोत्रदिबना रसे करी हुँ रजा आपतां चूकी गयो' ते सांमली त्रिपृष्ठनें क्रोध चड्यों पछी सीशं गरम करी तेनो उनो-उनो रस ते शय्यापालकना कानमां रेडाव्यो।
-क. सू. बा. टी. प. २४ पण बूडाडे तेम हुँ पण पत्थर सदृश छतां श्री कल्पसूत्रनी व्याख्या करुं छु तेमां माहारो कांइ पण गुण जाणवो नहीं।"-- (क. सू. बा. टी.पृष्ठ १)। इस तरह अत्यन्त विनयभाव से श्रीमद् ने इसका लेखन आरम्भ किया और जैन समाज को नवधर्मशिक्षा के क्षितिज पर ला खड़ा किया।
___टीका की एक विशेषता उसके रेखाचित्र हैं जो विविध कथा-प्रसंगों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कतिपय चित्र प्रस्तुत लेख के साथ पुनर्मुद्रित हैं। इन्हें भ्रमवश जैन चित्रकला का प्रतिनिधि नहीं मान लिया जाए। वस्तुतः १९ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुद्रणकला के समन्वय से भारतीय चित्रकला का जो रिश्ता बना
श्रीमद राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/६९
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