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कल्प० बलकुल दतीज नही तेमज बीजी पण टबामां लखेली प्रतो साधे मेलवतां केटलिक बानो प्रस्ताव' न्यूनाधिक दीठामां आयी माटे बीजी वे प्रण कल्पसूत्रोना टबानी प्रतोनो श्राधार लइनें टेमो तापनार श्रावक जीमसिंह माोके बधारो को तेथी था मंच जगनग श्रमीचार हजार श्लोक संख्या जेटलो थइ गयो. हजी पण चविरावली पटावली बगैरेमा घणी वात वधारे। लखवानी दती पण थोडा दिवसना व्याख्यानमां पूर्ण इ शके नहीं तेना जयची पडती मूकी वेदी पडी टे; तथा वली श्रीपार्श्वनाथस्वामीना चरित्रमां तेमज बीजे केटजेक स्थानके अन्य प्रतोमां जखेली वातोषी तवन जुदीज रीतें अने अति संक्षेपमां महाराज साहेबे वातो लखी। कादाडी हती ते मांहेली घणा स्थले तो फेरवी नास्बेली बे, परंतु केटलाएक स्थानके संशय होवाथी तथा महाराजने कागल लखी जुबाब मगाववाची घणा दिवस जातवानुं काम बंध राखवुं पडे तेम न बनी शकवाची एमंज रेहेवा दीधी छे तेमज वापवाने घणी सतावल हती माटे वधारे शोधन पण चयुं नची, तथापि जेटलुं बनी शक्युं तेटलुं यत् किंचित् शोधन पण कस्युं बे. बली मारवाड, गुर्जर तथा हिंदुस्थानी मली त्रण नापायें मिश्रित था मंच महाराज साहेबे बनावेलो हतो, परंतु तेमां घणा वांचनार साहेबाने बांधतां कंटालो उपजे कदाचित् कोइने यथार्थ अर्थ न बेशे, तेथी ते जाषा सुधारीने श्रावक शा. जीमसिंह माणकें षणु करी एकज गुर्जर भाषामां लखीने बाप्युं छे. तोपण हजी कोइ कोइ स्थले मारवाडादि देशोनी जापायें मिश्रित थयेली जाषा रहेली हशे तथा कोइ कोइ वातो पण अपूर्ण रहेली हशे ते मन्त्र पुनरुक्ति पण घणा स्थानकें दीठामां आवशे से सर्व बांचनार सकनोयें सुधारी वांच.
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भट्टारक श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर कृत कल्पसूत्र की बालावबोध टीका ( वैशाख कृष्णा २, संवत् १९४० सन् १८८३ ) का ११वाँ पृष्ठ, जिसकी १२, १३, १४ और १५ वीं पंक्तियों में इस तथ्य का उल्लेख है कि उक्त टीका मूतल: मारवाड़ी, गुजराती और हिन्दुस्तानी के मिले-जुले किसी भाषारूप में लिखी गयी थी किन्तु जिसे श्रावक शा. भीमसिंह माणक ने गुर्जरी में लिखकर नागरी लिपि में छपवा डाला। इतना होने पर भी मारवाड़ी आदि देशी भाषाओं का प्रभाव इसमें यत्र-तत्र स्पष्ट दिखायी देता है ।
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को इस प्रति का पता लगाना चाहिये और उसे व्यवस्थित सम्पादन और पाठालोचन के बाद प्रकाश में लाना चाहिये। इससे उस समय के भाषारूप पर तो प्रकाश पड़ेगा ही साथ में श्रीमद् के भाषाधिकार को लेकर भी एक नये अध्याय की विवृति होगी ।
टीका में कई अन्य विषयों के साथ ४ तीर्थंकरों के सम्पूर्ण जीवनवृत्त भी दिये गये हैं; ये हैं--- भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ, नेमीश्वर तथा तीर्थंकर ऋषभनाथ । इनके पूर्वभवों, पंचकल्याणकों तथा अन्य जीवन-प्रसंगों का बड़ा जीवन्त वर्णन हुआ है । स्थान-स्थान पर लोकाचार का चित्रण भी है । अन्त में स्थविरावली इत्यादि भी हैं ।
टीका के आरम्भिक पृष्ठों में श्रीमद् ने अपने आकिंचन्य को प्रकट किया है । उन्होंने लिखा है: “हुँ मंदमति, मूर्ख, अज्ञानी, महाजड़ छतां पण श्रीसंघनी समक्ष दक्ष थइने आ कल्पसूत्वनी व्याख्या करवानु साहस करुं छं । व्याख्यान करवाने उजमाल थयो छं । ते सर्व श्रीसद्गुरुमनो प्रसाद अने चतुर्विध श्रीसंघनुं सांनिध्यपणुं जाणवुं जेम अन्य शासनमां कहेलुं छे के श्रीरामचन्द्रजी सेनाना वांदरायें महोटा - महोटा पाषाण लइने समुद्रमां राख्या ते पथरा पोतें पण तऱ्या अने लोकोने पण तर या ते कांइ पाषाण
तीर्थंकर : जून १९७५/६८
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