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की बाला बोध टीका का सूत्रपात किया । इसके तैयार होते ही कई श्रावकों ने मूल प्रति पर से कुछ प्रतियाँ तैयार की किन्तु पाँच-पचास से अधिक नहीं की जा सकीं। लिपिकों (लेहियों) की कमी थी और एक प्रति ५०-६० रुपयों से कम में नहीं पड़ती थी अतः संकल्प किया गया कि इसे छपाया जाए (पृ. ६) ।
इस तरह 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका अस्तित्व में आयी । टीका रोचक है, और धार्मिक विवरणों के साथ ही अपने समकालीन लोकजीवन का भी अच्छा चित्रण करती है । इसके द्वारा उस समय के भाषा-रूप, लोकाचार, लोकचिन्तन इत्यादि का पता लगता है । सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें भी श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के क्रान्तिनिष्ठ व्यक्तित्व की झलक मिलती है। वस्तुतः यदि श्रीमद् हिन्दी के कोई सन्त कवि होते तो वे कबीर से कम दर्जे के बागी नहीं होते । कहा जा सकता है जो काम कबीर ने एक व्यापक पटल पर किया, करीब-करीब वैसा ही कार्य श्रीमद् ने एक छोटे क्षेत्र में अधिक सूझबूझ के साथ किया। कबीर की क्रान्ति में बिखराव था किन्तु श्रीमद् की क्रान्ति का एक स्पष्ट लक्ष्य-बिन्दु था । उन्होंने मात्र यति-संस्था को ही नहीं आम आदमी को भी क्रान्ति के सिंहद्वार पर ला खड़ा किया। मात्र श्रीमद् ही नहीं उन दिनों के अन्य जैन साधु भी क्रान्ति की प्रभाती गा रहे थे । 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका के लिखे जाने के दो साल बाद संवत् १९४२ में सियाणा में श्रीकीर्तिचन्द्रजी महाराज तथा श्रीकेशर विजयजी महाराज आये। दोनों ही शुद्ध चरित्र के साधु थे । उन्होंने सियाणा में
क. सू. बा. टी. चित्र ५४
तीर्थंकर : जून १९७५ /६४
कम तापस
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'भो तपसी यह काट न चीर, यामें जुगल नाग हैं बीर ।'
पार्श्वनाथ
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एकट
- पार्श्वनाथ; भूधर; ७५६१
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