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ही वर्षावास किया। अकस्मात् कोई ऐसा प्रसंग आया कि बागरा-निवासी किसी विवाद को लेकर सियाणा आये। यह एक अच्छा अवसर उपस्थित हुआ। इस समय जैन लोग तो एकत्रित हुए ही कई अ य जातियों के बन्धु-बान्धव भी वहाँ उपस्थित हुए। 'कल्पसूत्र' की प्रस्तावना में एक स्थान पर लिखा है : “तेमां वली ते वखतमां विशेष आश्चर्य उत्पन्न करनारी आ वात बनी के ते गामना रेहवासी क्षत्री, चौधरी, घांची, कुंभारादि अनेक प्रकारना अन्य दर्शनीऊ तेमां वली यवन लोको अने ते ग मना ठाकोर सहित पण साथे मली सम्यक्त्वादि व्रत धारण करवा मंडी गया।" इससे इस तथ्य का पता चलता है कि जैन साधु का जनता-जनार्दन से सीधा सम्पर्क था और उन्हें लोग श्रद्धा-भक्ति से देखते थे। अन्य जातियों के लोगों का एकत्रित होना और वध-निमित्त लाये गये पशुओं को छोड़ना तथा अहिंसा व्रत को धारण करना कुछ ऐसी ही घटनाएँ हैं, जो आज से लगभग नव्वे वर्ष पूर्व घटित हुई थीं। यह जमाना ऐसा था जब सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से काफी उथल-पुथल थी और लोग घबराये हुए थे। सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक ढकोसलों के शिकंजे में लोग काफी संत्रस्त थे। ऐसे समय में ज्ञान का सन्देशवाहक 'कल्पसूत्र' और पर्युषण में उसका वाचन बड़ा क्रान्तिकारी सिद्ध हुआ। श्रीमद् की इस टीका में कथाएँ तो हैं ही उसके साथ ही विचार भी हैं, ऐसे विचार जो जीवन को जड़-मूल से बदल डालने का सामर्थ्य रखते हैं।
आरम्भ से ही श्रीमद् का बल स्वाध्याय पर था। यति-क्रान्ति के “कलमनामे' में नवीं कलम स्वाध्याय से ही सम्बन्धित है। उन्होंने सदैव यही चाहा कि जैन साधु-साध्वियाँ और श्रावक-श्राविकाएँ स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त हों अतः विद्वानों के लिए तो उन्होंने “अभिधान-राजेन्द्र” कोश तथा “पाइयसबुहि" जैसी कृतियों की रचना की और श्रावक-श्राविकाओं के लिए 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका जैसी सरल किन्तु क्रान्तिकारी कृतियाँ लिखीं। ज्ञान के एक प्रबल पक्षधर के रूप में उन्होंने कहा : “एमज केटलाएक विवाहादिकमां वरराजाने पहेरवा माटे कोइ मगावा आवशे तो जरूर आपवा पडशे । एवो संकल्प करीने नवनवा प्रकारना सोना रूपा हीरा मोती आदिकाना आभूषणो घडावी राखे छ, तथा वस्त्रोना वागा सिवरावी राखे छे, तेम कोइने भणवा वाचवाने माटे ज्ञानना भंडारा करी राखवामां शुं हरकत आवी नडे छे? पण एवी बुद्धि तो भाग्येच आवे।” (प्र. पृ. १५) । उक्त अंश का अन्तिम वाक्य एक चुनौती है। श्रीमद् ने इन अप्रमत्त चुनौतियों के पालनों में ही क्रान्ति-शिशु का लालन-पालन किया। उन्होंने पंगतों में होने वाले व्यर्थ के व्यय का भी विरोध किया और लोगों को ज्ञानोपकरणों को सञ्चित करने तथा अन्यों को वितरण करने की दिशा में प्रवृत्त किया; इसीलिए धार्मिक रूढ़ियों के उस युग में 'कल्पसूत्र' के छापे जाने की पहल स्वय में ही एक बड़ा विद्रोही और क्रान्तिकारी कदम था। इसे छापकर तत्कालीन जैन समाज ने, न केवल अभूतपूर्व
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/६५
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