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ॐ जट्टारक श्रीराजेंज्मृरिकताका
श्रीकल्पसूत्रस्य वालावबोधिनी वार्ता 15॥ एक अध्ययन ॥ नेमीचन्द जैन ॥
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मध्यकाल में संस्कृत, प्राकृत और मागधी में लिखे ग्रन्थों की सरल टीकाएँ लिखने की परम्परा बनी। इसके कई स्पष्ट कारण थे। लोग इन भाषाओं को भूलने लगे थे और जीवन की अस्त-व्यस्तता के कारण इनसे सहज सांस्कृतिक सम्पर्क टूट गया था; अतः सहज ही ये भाषाएँ विद्वद्भोग्य रह गयीं और सामान्य व्यक्ति इनके रसावबोध से वंचित रहने लगा । वह इन्हें सुनता था, भक्ति-विभोर और श्रद्धाभिभूत होकर, किन्तु उसके मन पर अर्थबोध की कठिनाई के कारण कोई विशेष प्रभाव नहीं होता था। 'कल्पसूत्र' की भी यही स्थिति थी।
मूलतः कल्पसूत्र श्रीभद्रबाहुसूरि द्वारा १२१६ श्लोकों में मागधी में लिखा गया है (प्र. पृ. ५)। तदनन्तर समय-समय पर इसकी कई टीकाएँ हुईं, जिनमें पण्डित श्रीज्ञानविमलसूरि की भाषा टीका सुबोध और सुगम मानी जाती थी, यह लोकप्रिय भी थी और विशेष अवसरों पर प्राय: इसे ही पढ़ा जाता था। जब श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि से 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका करने का निवेदन किया गया तब उन्होंने यही कहा था कि पण्डित ज्ञानविमलसूरि की आठ ढालवाली टीका है अतः अब इसे और सुगम करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर श्रीसंघ की ओर से आये हुए लोगों ने कहा : "श्रीपूज्य, इस ग्रन्थ में थविरावली तथा साधु-समाचारी नहीं है अतः एक व्याख्यान कम है तथा अन्य बातें भी संक्षेप में कही गयी हैं अतः यह ग्रन्थ अधूरा है। कहा भी है कि 'जो ज्ञान अधूरा है, वह ज्ञान नहीं है; जो आधा पढ़ा है, वह पढ़ा हुआ नहीं है; अधूरी रसोई, रसोई नहीं है; अधूरा वृक्ष फलता नहीं है; अधूरे फल में पके हुए फल की भाँति स्वाद नहीं होता, इसलिए सम्पूर्णता चाहिये।' आप महापुरुष हैं, परम उपकारी हैं अतः श्रीसंघ पर कृपादृष्टि करके हम लोगों की अर्जी कबूल कीजिये।” (प्र. पृ. ६)। इसे सुनकर श्रीमद् ने श्रावकों के माध्यम से ४-५ ग्रन्थागारों में से काफी प्राचीन लिखित चूर्णि, नियुक्ति, टीकादि की दो-चार शुद्ध प्रतियाँ प्राप्त की और 'कल्पसूत्र'
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/६३
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