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थे। अपने समकालीन पाखण्ड को परास्त करने में दोनों मुनियों को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई थी। रूपक इस प्रकार है--
भुजंगप्रयात 'मुनिनाथ साथे, सह साधु सारे। मुनि धन्न धोरी, विजय रत्थ धारे ।। गुरुपाय सेवे, बड़ा विज्ञ धारी। रहे हाजरे युक्त भक्ति सुधारी ।। गिरा भारती कण्ठ, आभरण सोहे। बनी शान्त मुद्रा, दमे कोई मोहे ।। शशि सौम्य कान्ति, निरालम्ब भासे । प्रतिबन्ध नाहीं, ज्युही वायु रासे ।। जयो पुन्यवंता गुरुभक्ति कारी । रहे रात-दिवसे वपुबिम्ब धारी।। मुनि सेवना पार नावे कहता। हुवे पूज्य लोके तिहुं को महंता ।।
कविवर ने जहाँ एक ओर श्रीमद् की सेवा में संलग्न अपने सहचारी मुनियों को बड़भागी कहा है, उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने वनदीक्षित बालमुनि श्री मोहनविजयजी को आशीर्वादात्मक उद्बोधन दिया है। उन्हें सम्बोधित करते हुए रुचिजी कहते हैं : “बचपन में ही तुमने मोह को नाश कर उस पर विजय प्राप्त कर ली और मोहन विजय बने। श्रीमद् श्रीहुजूर की हाजरी में अहर्निश शास्त्राभ्यास किये जाओ। सबके प्रीतिपात्र बनो। जो विषय समझ में न आये, उसे अवश्य पूछो · · ·।' मुनि-परिवार के प्रति धर्म-स्नेह की परोपकारी कामना कविवर में मूर्तिमन्त हुई थी, पदगुरुता अथवा ज्ञान-गरिमा का अहंकार उन्हें किंचित भी न था। इस प्रसंग में उन्होंने लिखा है--
'लघु शिष्य सोहे विजे मोह नाथी। तज्यो मोह बालापनाथी ।। विरोचि विशुद्धा वान लागे सहुने । भणो शास्त्र वांचो खुशी हो बहुने ।। मुनिभ्यास राखो दिवाराता मांही। कलापूर्ण साधु, सिरे स्वच्छ ठाही ।। हजूरे हाजरे रहो पूछताजे। लहो अच्छ अच्छे गहो गम्य गाजे ।।
आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व कविवर श्री प्रमोदरुचि ने अपने इस "विनतिपत्र” का उपसंहार इन पंक्तियों से किया था--
'संवत् उगणिस छत्तिस साल। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशि माल ।। दीपोच्छव सहु घर-घर करे। तिम मुनिगण तम तापिक हरे ।। अल्पमति बध हास सुठाण। गुरु गण भक्ति लहि दिल आण।। बावन मंगल करि भई वृद्धि । उत्तम जन कर लेहु समृद्धि ।। पत्रकमल जलबिन्दु ठेराय। अमल अनोपम अमित देखाय ।। परिमल दह दिशि पसरे लोक । संत पुरुष इम होवे थोक ।। "विनति' जो सुणे चित्त लगाय । निकट भवी समदृष्टि थाय ।। रुचि प्रमोद गावै भणै। सुणतां श्रवणे पार्तिक हणै ।।
जब श्रीमद् १८८१ ई. में मालवा आये तब कविवर ने उनके दर्शन किये और उसी वर्ष विक्रम संवत् १९३८, आषाढ़ शुक्ल १४ को उनका देहावसान हो गया।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/५७
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