SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म के आडम्बरों में उलझे हुए थे। सद्गुरु दुर्लभ थे, प्रवंचक और धोखादेह लोग ही साधुओं के वेष में आम लोगों के साथ विश्वासघात और छल कर रहे थे। ऐसे कठिन समय में भी कविवर को सद्गुरु पाने में सफलता मिली। एक लावणी में उन्होंने लिखा है-- 'सफल करो श्रद्धान, मान तज कूमती को वारो। समझकर समता को धारो।। कर्म अनन्तानुबन्धी भवों का, जिन भेट्यां सरक्या । चेतना निर्मल हुए हरख्या ।। दोहा--चेतना निर्मल होय के, कर भक्ति राजेन्द्र । सूरीश्वर सिर सेहरो, वन्दो भविक मुनीन्द्र ।। जगत में प्रवहण निरधारो।। पंचम आरे एह शुद्ध मुनिवर उपगारी । क्षमा को खड्ग हाथ धारी ।। पंचमहाव्रत धार मारकर ममता विषधारी। जिन्हों का संजम बलिहारी ।। दोहा--बलिहारी मुनिराज की, मारी परिसह फौज । अमृत वचन प्रमोद सुं, रुचि वन्दे प्रति रोज ।। कालत्रिहुं वन्दन धारो।। कविवर ने श्रीमद की निश्रा में ज्ञान की अविराम आराधना और तप की उत्कृष्ट साधना की। वे ध्यान-योगों की प्रवृत्ति भी नियमित किया करते थे। श्रीमद् की भाँति ही रुचिजी भी एक-एक पल का अप्रमत्त उपयोग करते थे। उनकी इन आध्यात्मिक उपलब्धियों का वर्णन इस रूपक में दृष्टव्य है-- मैं तो वन्दु मुनीश्वर पाया। ध्यान शुक्ल मन ध्याया।। उपशम रस जल अंग पखारे, संजम वस्त्र धराय।। आयुध अपने उपधि धारी, दृढ़ मन चीर उपाया ।। तप चउरंगी सैन्य सजाई, मुक्ति डूंगर चढ़ आया। कर्म कठिन दल मोह जीत के, परिसह झंडा उड़ाया ।। निरुपद्रव निज तनपुर ठाणे, रजवट केवल पाया। एम रुचि मुनि शुभ ध्यान प्रमोदे, मुक्ति निशाण धुराया ।। निश्छल-गुणग्राही प्रमोदरुचिजी ने अपने "विनतिपत्र" में अन्य मुनियों के साथ अपने गुरु-भाई एवं सहपाठी श्री धनमनि को साधगण-रूपी रथारूढ़ श्रीमद् के कुशल सारथी के विरद से अलंकृत किया है। उनकी यह उपमा इसलिए भी बड़ी सटीक और सार्थक है क्योंकि जिस तरह महान शूरवीर योद्धा गौरवपूर्ण पार्थ के सारथी श्यामवर्ण कृष्ण थे, ठीक उसी प्रकार श्रीमद् राजेन्द्रसूरि गौरवर्ण थे और धनमुनि श्यामवर्ण थे। दोनों ही अपने समय के वाग्मी शास्त्रवेत्ता थे। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ज्ञान-गम्भीर, अध्यात्म और आगम-निगम के अखूट भण्डार थे, और धनमुनि काव्य, अलंकार, छन्द, आगम और तर्क के सर्वोपरि ज्ञाता तीर्थंकर : जून १९७५/५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520602
Book TitleTirthankar 1975 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1975
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy