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चारित्रिक मर्यादाओं के वाहक सूरिगण कभी-कभी ही होते हैं। श्रीमद् के व्यक्तित्व में ज्ञान और क्रिया का मणि-कांचन योग अवतरित हुआ था। इनकी कठोर मधुकरीचर्या का उल्लेख कविवर ने इस प्रकार किया है--
___'अशनादि काज गऊचरि ही जाय, उंचनीच मज्जिम गिहिवग्ग ठाय।
परिमाण गेह अभिग्रह धरंत, गउ मूत्ति आदि गउचरि फिरंत ।। गतिमन्द थकि चालहि सुपंथ, इर्या सुशोध समदृष्टि संत । गहे अंत पंत तुच्छ आहार, एषण सुदोश पूरण निवार।
जंत्री सुचक्र जिम लेप देय, मुनि आत्मपिंड तिम भाडु देय।
चालीस सात सवि छंडि दोष, इम निरममत्व मुनि आत्मपोष ।। कविवर का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ अभी अनुपलब्ध है। अपनी प्रसिद्धि के लिए औदासीन्य अथवा अपने अप्रमत्त व्यस्त साधक जीवन में स्फुट रचनाओं के उपरान्त स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार करने के लिए अवकाश का न होना ही कदाचित् इसका मुख्य कारण रहा होगा।
रुचिजी ने अपने समय की सामाजिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का चित्रण इन शब्दों में किया है--
'भोला श्रावक गुण नहि जाणे गाडरिया परवाहे लागा, मिथ्या धरमे धावे।
देखो श्रावक नाम धरावे ।। कुगुरु कुदेव कुधर्मे लागा, हौंस करीने होड़े। शुध समकित बिन ललाड़ मांहे लोही कर्दम चोड़े ।। पनरा कर्मादान प्रकाश्या, नरक तणा अधिकारी। कुवणज थोरी भील कसाई विणजे पाप वधारी ।। कुगुरु का भरमाया हरखे , धरम धींगणा मांडे । सद्गुरु की व णी सुण कष्ट , मिथ्यामत ने छांडे ।। ढोंग धूतारा लावे ढोंगी, म्होटा बाजे साजी। भ्रष्टाचारी चरण पखाली, पीवे राजी राजी ।। श्राविका पण सरधा सरखी, जीव अजीवन जाणे । सडी · · पूजे, मिथ्या आशा- ताणे ।। मनुज जमारो कुल श्रावक को कोइक पुण्ये पावे ।। सद्गुरु की सरधा बिन प्राणी, फोकट जमन गमावे ।। नय-निन्दा मत आणो मन में, आतम अरथ विचारो। मूरि राजेन्द्र की वाणी सुणके प्रमोद रुचि मन धारो।
देखो श्रावक नाम धरावे । उन्नीसवीं शताब्दी में श्रावक धर्म के प्रति लोगों में तीखी उपेक्षा और उदामीनता थी। सम्यक्त्व का वास्तविक अर्थ कोई जानता ही नहीं था। प्रायः सभी
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/५५
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