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न्याय नये निरधार, खडग चौधार सुसमता। सूरि विजय राजेन्द्र यति, छोडी सहु ममता ।।
गड़बड़ता गहरी हुई, अवसरपणि पणकाल । भाँति-भाँति के भेद में, खातपात प्रतिचाल ।। खातपात प्रतिचाल टाल मुनिमारग सोध्यो।
उज्जड घाटकुवाट, फैलफैलन को रोध्यो ।। वादी मद झरी आप, तेज लखि भागे पड़पड़। सूरि विजय राजेन्द्र छुडा दीनी सब गड़बड़ ।।
समाजोत्थान के महान् संघर्ष में जातिवाद और गच्छवाद की दीवारें श्रीमद् की क्रान्ति का अवरोध नहीं कर सकीं। जिस अपूर्व बल और संकल्प से श्रीमद् ने सामाजिक और चारित्रिक क्रान्ति के इस काम को उठाया था, वह निरन्तर सफल होता गया। श्री चूलगिरि तीर्थ के वर्षों तक चले विवाद के सन्दर्भ में श्रीमद् के लिखित वक्तव्य ने उसे जैनों को उपलब्ध कराया था। जालोर दुर्गस्थित प्राचीन जैन मन्दिरों को राठोडी शासन से मुक्त कर उन्हें श्रीमद् ने जैन समाज को सिपुर्द कराया। इन मन्दिरों का सरकार द्वारा वर्षों से शस्त्रागारों के रूप में उपयोग हो रहा था। इस तरह अत्याचार और अन्याय से पीड़ित समाज को मुक्त कराने में श्रीमद् ने महान् तत्परता व्यक्त की थी। मन्दिरों का जीर्णोद्धार श्रीमद् की क्रान्ति का एक महत्त्वपूर्ण अंग था।
‘पर उपकारी प्राणि ने, निष्कारण निरबन्धु ।
भवसिन्धु बिच पतित को, तारक प्रवर गुणिन्दु ।। मुनि-पुंगव पूरे यति, दशविध धर्म के धार । वर्तमान विचरे जयो, दुर्द्धरद्रत धरी भार ।। दुर्द्धर व्रत धरी भार, लोष्टसम कंचन पेखे । रागे वर वडभागि, विषय न विलोचन देखे ।।
स्तुति निन्दा चिहं समगिणि विहरे शमदमता दुनि।
पंचम काल सुचालसू प्रतपे रवि राजेन्द्र मुनि ।। दरसन ते दुरितहि नसे, भक्तिन तें भवनास । वन्दन तें वांछित मिले, अवलोकित फले उपास ।। भक्ति वशे कछ वर्ण की हीनाधिक पुनरुक्ति । ते खमजो गुण सिंधुजी, झाझी नहिं मुझ शक्ति ।।
श्रीमद् का उत्कृष्ट साध्वाचार और मुनि-जीवन उनकी अप्रमत्त दिनचर्या जन-साधारण के लिए जैसे साक्षात् दशवकालिक सूत्र ही थी। यद्यपि उच्चकोटि के शास्त्रज्ञ विद्वान् प्रायः समय-समय पर होते रहे हैं लेकिन विशुद्ध और प्रामाणिक
तीर्थंकर : जून १९७५/५४
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